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[पं. रसनचन्द जैन मुख्तार ।
जिसप्रकार वर्तमानपर्याय को, इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना, केवलज्ञान जानता है, उसीप्रकार इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना प्रसद् भूतपर्यायों को भी जानता है। इतनी सदशता की अपेक्षा 'तक्कालिगेव' वर्तमान पर्याय 'इव' शब्द का प्रयोग किया है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि केबल ज्ञान ( सम्यग्ज्ञान ) जिसप्रकार वर्तमानपर्याय को सद्भुत रूपसे जानता है, उसी प्रकार असद्भुत ( भूत-भावि ) पर्यायों को भी सद्भूतरूपसे जानता है। यदि ऐसा अर्थ किया जायगा तो वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं रहेगा, क्योंकि जैसा पदार्थ है उसको वैसा ही जाने वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है। कहा भी है
अन्यनमनतिरिक्त, याथातथ्यं विना च विपरीतात।
निःसंदेहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥ ४२ ॥ [ र० क. श्रा० ] जो न्यनतारहित अधिकतारहित विपरीततारहित और सन्देहरहित जैसा का तैसा जानता है वह सम्यग्ज्ञान है, ऐसा शास्त्रों के ज्ञाता पुरुष कहते हैं ।
प्रवचनसार गाथा ३७ की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी पर्यायों के छह विशेषण दिये हैं (१) जितने तीनकाल के समय हैं उतनी ही प्रत्येक द्रव्य की पर्यायें हैं, (२) वे पर्यायें क्रम से उत्पन्न होती हैं, (३) वे पर्यायें सद्भूत-असद्भूत के भेद से दो प्रकार की हैं, (४) वे दोनोंप्रकार की पर्याय अत्यन्त मिश्रित हैं (५) किन्तु विशेष ( भिन्न-भिन्न ) लक्षण को धारण किये हुये हैं, (६) वर्तमानपर्याय इव ( के समान ) एक समय में ही ज्ञानमन्दिर में स्थिति को प्राप्त होती है अर्थात् जानी जाती हैं।
प्रथम विशेषण है-"जितने तीनकाल के समय हैं, उतनी ही प्रत्येक द्रव्य की पर्यायें हैं।" तीनकाल प्रर्थात भत-वर्तमान-भावि-काल के समय हैं प्रत्येक द्रव्य की उतनी पर्यायें हैं। भूतकाल के समय अनादि-सान्त हैं अतः भूतकाल की पर्याय भी अनादि-सान्त हैं। केवलज्ञान भी भूतकाल की पर्यायों को अनादि-सान्तरूप से जानता है, क्योंकि केवली ने भूत काल के अनादित्व का उपदेश दिया है। भूतकाल की पर्यायों को प्रवाहरूप से अनादिरूप जानना ही सर्व भूतपर्यायों को जानना है। भूतकाल को या भूतपर्यायों को सादिरूप जानना तो अन्यथा जाता है। वर्तमानकाल सादि-सान्त है अतः वर्तमानपर्याय भी सादि-सान्त है। भाविकाल सादि अनन्त है अत! भाविपर्याय भी सादि-अनन्त हैं। केवलज्ञान भी भाविपर्यायों को सादि-अनन्त रूप से जानता है। यदि सान्तरूप जाने तो प्रन्यथा जानना हो जावे ।
__दूसरा विशेषण है-"वे पर्यायें क्रमसे उत्पन्न होती हैं" अर्थात् जिसप्रकार समस्तगुण एकद्रव्य में एकसाथ रहते हैं उसीप्रकार समस्तपर्यायें या एकसे अधिक द्रव्यपर्यायें एकसाथ एक द्रव्य में नहीं रहती हैं । उन पर्यायों में से पर्व-पूर्व पर्याय व्यय ( मष्ट ) होती रहती है और उत्तर-उत्तर पर्याय उत्पन्न होती रहती है। एक द्रव्य में एकसमय में एक ही द्रव्यपर्याय रहती है। केवलज्ञान भी पर्यायों को इसीप्रकार जानता है।
तीसरा विशेषण है-"वे पर्याय सद्भुत व असद्भूत के भेद से दो प्रकार की हैं। अर्थात वर्तमानपर्याय सद्भूत है और भूत व भाविपर्याय असद्भूत हैं ।
___ चौथा विशेषण है-"सद्भूत पर्याय और असद्भूतपर्याय अत्यन्त मिश्रित हैं ।" वर्तमानपर्याय, जो सद्भुत है, उस वर्तमानपर्याय में ही प्रसद्भूत-भूतपर्यायें भूतशक्तिरूपसे पड़ी हुई हैं और असद्भूत भाविपर्याय भी भविष्यत्शक्तिरूपसे उस वर्तमानपर्याय में पड़ी हुई हैं । एक ही सद्भूत वर्तमानपर्याय में असद्भूतपर्यायें शक्तिरूप से होने के कारण सद्भुतपर्याय और असद्भूतपर्यायों को प्रत्यन्त मिश्रित कहा है।
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