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व्यक्तित्व और कृतित्व )
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__ जो ज्ञान न्यूनतारहित, अधिकतारहित, विपरीततारहित और सन्देहरहित जैसा का तैसा जानता है, शास्त्र के ज्ञाता पुरुष उसको सम्यग्ज्ञान कहते हैं । अतः जो पर्यायें द्रव्य में अविद्यमान-प्रसत्रूप हैं वे सम्यग्ज्ञान में विद्यमान-सत्रूप नहीं हो सकती हैं।
___ जो भावी पर्याय द्रध्य में विद्यमान असत्रूप हैं उनमें क्रमबद्धता नहीं हो सकती अर्थात् उनका नियतक्रम नहीं हो सकता है। इसीलिये दृष्टिवाद अंग में नियतिवाद को एकान्तमिथ्यात्व कहा है। जब तक अनियति को भी स्वीकार नहीं किया जायगा उस समय तक नियतिवाद अथवा पर्यायों की क्रमबद्धता में एकान्त मिथ्यात्व का दोष दूर नहीं हो सकता है।
-प्. ग. 26-1-73/VIII & IX/ सुलतानसिंह __"क्रमबद्ध व नियत पर्याय" का सिद्धान्त प्रागम विरुद्ध है शंका-श्री जयधवल टीका के आधार पर मापने यह लिखा और उसमें कि-'सर्वज्ञ अतीत अनागतपर्यायों को पविद्यमान होने से उन्हें वर्तमानपर्याययुक्त द्रव्य के आधार से जानते हैं, क्योंकि भूत-भविष्यत्पर्यायों को अयंपना नहीं है।' इससे यह बात सिद्ध की गई है कि सर्वज्ञान में भूत-भविष्यत्पर्याय चूंकि अभावात्मक होने से तहरूप हो अर्थात अभावात्मकरूप से ही ज्ञात होती हैं।
अगर वर्तमान अर्थ के ग्रहणपूर्वक भूत भविष्यत्पर्यायों का ज्ञान होता है तो यह ज्ञान तो ऐसा ही हुआ जैसे अवग्रह के ग्रहणपूर्वक ईहादिकज्ञान होते हैं तब यह केवलज्ञान प्रत्यक्ष कैसे माना जायगा?
श्री जयधवला में शक्तिरूप से माना है तो शक्तिरूप में तो उसका माकार नहीं होता है वे शक्तिरूप पर्याय वर्तमान में व्यक्तरूप से नहीं झलक सकती हैं।
किन्तु धी प्रवचनसार जो श्री महावीरजी से टीका सहित प्रकाशित हुआ है उसकी गाथा ऋ० ३७ से लेकर केवलज्ञान में प्राप्त हये शेयों का कथन इसप्रकार है कि केवलज्ञान में अतीत-अनागत-पदार्थ वर्तमान की तरह प्रत्यक्षरूप से प्रतिभासित होते हैं, जैसे चित्रपट में चित्र प्रतिभासित होते हैं । तो चित्रपट में चित्रों का आकार होता है तभी वे प्रतिभासित होते हैं इसीप्रकार केवलज्ञान में भी भूत-भावीपर्याों का आकार वर्तमान की भांति झलकता है, किन्तु श्रीजयधवल के अनुसार भूत-भावीपर्यायों का आकार ही जब बना नहीं फिर वे कैसे झलकते हैं और श्री प्रवचनसार के अनुसार अविद्यमानपदार्थ विद्यमान की तरह झलकते हैं इसका क्या मतलब है?
विद्यमान की तरह झलकना तो यही हो सकता है जैसे विद्यमानपदार्थ का आकार बना हुआ है और वह केवलज्ञान में झलकता है। यदि ऐसा माना जावे तो भूत-भावीपर्याय जो अनाकाररूप से हैं वे साकाररूप से कैसे ज्ञात होंगी?
कृपया इसका ठोकप्रकार से स्पष्टीकरण करने का कष्ट करें ताकि शंका समाधान होकर हृदय स्वच्छ हो जाय।
समाधान-ज.ध.पु०१ पृ. २२ व २३ पर, श्री पं० कैलाशचन्दजी व श्री पं० फूलचन्दजी बनारस ने अनुवाद करते हुए, इस प्रकार लिखा है
प्रश्न-यदि विनष्ट और अनुत्पन्नरूप से प्रसत्पदार्थ में केवलज्ञान की प्रवृत्ति होती है तो खरविषाण में भी उसकी प्रवृत्ति होओ ? उत्तर-नहीं, क्योंकि खरविषाण का जिसप्रकार वर्तमान में सत्त्व नहीं पाया जाता है,
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