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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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करते हैं, निन्दा नहीं करते। जिनको सर्वज्ञवाणी पर श्रद्धा नहीं है और एकान्तनियतिवाद मिध्यात्व की श्रद्धा है हिंसा आदि के त्यागरूप व्रतों को हेय बतलाते हैं सर्वथा बंध के कारण बतलाते हैं ।
जिस सज्जन के चोट लगी है उसको द्वेष दूर करने के लिए यही विचार करना चाहिये कि ऐसा ही होना नियत था इसमें अन्य किसी का कोई दोष नहीं है ।
- जे. ग. 13-3-67 / VII /
( १ ) एक का दूसरे पर प्रभाव पड़ता है। (२) नियतिवाद श्रागम में निषिद्ध है
शंका- श्री वादीमसिंहसूरि ने क्षत्रचूड़ामणि में कहा है कि रसायन के प्रयोग से लोहा भी सोना बन जाता है, किन्तु सोनगढ़ सिद्धांत कहता है कि एक का दूसरे पर प्रभाव या असर नहीं पड़ता है ।
इन दोनों में कौन सिद्धांत
ठीक है ?
समाधान - श्री वावोर्भासह सूरि को जो ज्ञान गुरुपरम्परा से प्राप्त हुआ था वही क्षत्रचूड़ामणि में लिखा गया है अतः उनके वाक्य कैसे अन्यथा हो सकते हैं ? सोनगढ़ वाले प्रविरत हैं। जिनके हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील श्रौर परिग्रह पापों का एकदेश भी त्याग नहीं है श्रतः उनका सिद्धांत कैसे सत्य हो सकता है ? श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसार में निम्नप्रकार कहा है
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रागो पसत्थभूदो वत्युविसेसेण फलवि विवरीदं । णाणाभूमिगवाणिह बोजाणिव सस्सकालन्हि ।। २५५ ।।
संस्कृत टीका- यथैषामपि बोजानां भूमिर्वपरीत्या निष्पत्तिर्वपरीश्यं । तथैकस्यापि प्रशस्त राग लक्षणस्य शुभोपयोगस्य पात्रर्वपरीत्यात्फलवैपरीत्यं कारणविशेषात् कार्यविशेषस्यावश्यं भावित्वात् ।
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यथा जघन्यमध्यमोत्कृष्टभूमिवशेन तान्येव बीजानि भिन्नभिन्नफलं प्रयच्छन्ति तथा स एव बीजस्थानीय शुभोपयोगो भूमिस्थानीय पात्रभूत वस्तुविशेषणं भिन्न-भिन्न फलं ददाति । तेन कि सिद्धम् । यवा पूर्वसूत्रकथितन्यायेन सम्यक्त्व पूर्वक शुभोपयोगो भवति तथा मुख्यवृत्या पुण्यबन्धो भवति परम्परा निर्वाणं च । नो चेरनुष्य बन्धमात्रमेव । "
इस गाथा व संस्कृत टीका में बतलाया गया है कि 'एक ही बीज होने पर भी यदि उसको जघन्यभूमि में बोया जायगा तो जघन्यभूमि के निमित्त के वश से उस बीज का फल निःकृष्ट होगा यदि उस बीज को मध्यम भूमि
बोया जाय तो मध्यमभूमि के निमित्त के वश से उसी बीज का फल मध्यम होगा । यदि उसी बीज को उत्कृष्ट भूमि में बोया जाय तो उत्कृष्टभूमि के निमित्त के वश से उसी बीज का फल उत्तम होगा, क्योंकि निमित्तकारण की विशेषता से कार्य में विशेषता अवश्यंभावी है । इसीप्रकार निमित्तभूत पात्रों की विशेषताओं से शुभोपयोग के फल में विभिन्नता हो जाती है। शुभोपयोग मात्र पुण्यबन्ध का कारण नहीं है, किन्तु परम्परा मोक्ष का कारण भी है ।
श्री कुम्कुम्बाचार्य, श्री अमृतचन्द्राचार्य तथा श्री जयसेनाचार्य के उपर्युक्त वाक्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि एक का दूसरे पर प्रभाव या असर पड़ता है और जिससे कार्य में भी अन्तर पड़ना श्रवश्यंभावी है ।
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