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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार
कारण मान लिया जावे तो बाह्य और माभ्यन्तरकारण सामग्री का ही लोप हो जायगा ।' श्री राजवार्तिक के इस कथम से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'कारण कार्य की दृष्टि में नियतिवाद का कोई स्थान नहीं है और 'नियतिवाद' की दृष्टि में 'कारणों' का कोई स्थान नहीं है । जैसे द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि में 'प्रनित्यता' का कोई स्थान नहीं है और पर्यायार्थिकनय की दृष्टि में 'निश्यता' का कोई स्थान नहीं है ।
आगम में जिसप्रकार कहीं पर द्रव्यार्थिकनय की मुख्यता से कथन है कहीं पर पर्यायाधिकमय की मुख्यता से कथन है उसीप्रकार आगम में कहीं पर 'नियतिवाद' की अपेक्षा से कथन है और कहीं पर कारण कार्य की अपेक्षा कथन है, किन्तु एकान्तपक्ष की हट कहीं पर नहीं है, क्योंकि दिगम्बर जैनागम में सर्वया एकान्तपक्ष को एकान्त मिध्यात्व कहा है। अतः 'दाने दाने पर मोहर' ऐसा सर्वथा एकान्त सिद्धान्त दिगम्बर जैनागम में कहीं पर भी नहीं कहा गया है। दिगम्बर जैनागम में तो सर्वज्ञ ने पदार्थ को अनेकान्तात्मक कहा है, और स्याद्वाद के द्वारा वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन किया है, इस आगम के विरुद्ध सर्वज्ञज्ञान के आधार पर सर्वथा एकान्त नियतिवाद को ef सम्यक् नहीं है ।
जिसने मद्य, मांस, मधु आदि को आत्मा के घातक भले प्रकार समझकर आत्महित के लिये इनका त्याग किया है उनकी इन परिणामों द्वारा आगामी मद्य आदि सेवन की पर्याय नष्ट हो जाती है, जिसप्रकार सम्यग्दर्शनरूप परिणामों के द्वारा अनन्तसंसार का नाश हो जाता है। इस सम्बन्ध में खदिरसार भील की कथा प्रथमानुयोग से जानी जा सकती है। जिसके मद्य, मांस, मधु आदि का त्याग है वे निर्मल बुद्धि वाले पुरुष जिनधर्म के उपदेश के पात्र होते हैं ( पु० सि० उ० श्लो० ७४) । अर्थात् बिना मद्य, मांस, मधु आदि के त्याग किये सम्यग्दर्शन भी मनुष्य को नहीं हो सकता ।
सर्वज्ञ का फलितार्थ 'एकान्त नियतिवाद' को कहने से शिथिलाचार का पोषण होता है, जिससे धर्म की हानि होती है। सर्वज्ञ का फलितार्थ मनेकान्त है और धनेकान्त सर्वज्ञ ने उपदेश दिया है। शंकाकार ने जो एकान्त नियतिवाद ( क्रमबद्धपर्याय ) के आधार पर मद्य, मांस, मधु के त्याग का निषेध किया था। अनेकान्त दृष्टि द्वारा उसका खण्डन हो जाता है ।
- ग. 19-12-63 / 1X / प्रेमचन्द
शंका-भारत पर आक्रमण के कारण संसार चीन को बुरा कहता है। हम जैन भी चीन की निन्दा करते हैं तो हमको क्या सर्वज्ञ को श्रद्धा है ? सर्वज्ञ के ज्ञान के अनुसार चीन का आक्रमण हुआ या सर्वज्ञज्ञान के विरुद्ध चीनका आक्रमण हुआ ? यदि सर्वज्ञज्ञान के अनुसार चीन का आक्रमण हुआ तो इसमें चीन का क्या दोष ? क्योंकि यह तो सर्वज्ञज्ञान के अनुसार परिणमन करने के लिये बाध्य था, अन्यथा परिणमन नहीं कर सकता था। इसमें चीन का क्या दोष ? जिसप्रकार अन्यमतवाले यह मानते हैं कि ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध पत्ता नहीं हिल सकता, उसीप्रकार हम यह मानते हैं कि सर्वज्ञज्ञान के विरुद्ध भी पत्ता नहीं हिल सकता। इन दोनों सिद्धान्तों का अभिप्राय एक है, मात्र कुछ शब्दों का अन्तर है।
समाधान- पूर्व शंका नं १ धौर इस शंका नं० २ का आधार एकान्त नियतिवाद ( क्रमबद्धपर्याय ] है । एकान्त नियतिवाद के बलपर इस शंका में अन्याय का पोषण है। जैनधर्म का मूलसिद्धान्त अनेकान्त है जिसमें नियतिवाद और नियतिवाद दोनों की स्वीकारता है। अनिय तिनिरपेक्ष 'नियति' घोर नियतिनिरपेक्ष 'भनियति' दोनों ही सर्वथा एकान्त होने से मिथ्या हैं । कहा भी है- ये सभी नय यदि परस्पर निरपेक्ष होकर वस्तु का निश्चय करते हैं तो मिध्यादृष्टि है, क्योंकि एक दूसरे की अपेक्षा के बिना ये नय जिसप्रकार को वस्तु का निश्चय कराते हैं, वस्तु वैसी नहीं है ( ज० ध० पु० १ पृ० २४५ । )
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