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श्री वसुनन्दि आचार्य सिद्धान्तचक्रवर्ती ने गाया ६ में आप्त, प्रागम और तत्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन
व्यक्तित्व धोर कृतित्व ]
कहा है।
श्री स्वामि कार्तिकेय आचार्य ने गाया ३११-१२ में अनेकान्तरूप तत्वों को तथा जीव, प्रजीव आदि नव पदार्थों की श्रुतज्ञान व नयों के द्वारा जानकर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। तथा गाथा ३२४ में कहा है कि 'जो तत्वों को नहीं जानता है, किन्तु जिन वचन पर श्रद्धा रखता है वह भी सम्यग्दृष्टि है।'
'प्रथम, संवेग, अनुकम्पा और धास्तिक्य की प्रगटता ही जिसका लक्षण है उसको सम्यक्त्व कहते हैं। यह शुद्ध नय की अपेक्षा लक्षण है । धवल पु० १ पृ० १५१ ।
आप्त आगम और पदार्थ को तत्वायं कहते हैं। तत्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह अशुद्ध नय के आश्रय से लक्षण है । धवल पु० १ पृ० १५१ ।
गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५६१ में कहा है— 'जिनेन्द्र भगवान के द्वारा उपदेश दिये गये छह द्रव्य पाँच अस्तिकाय और नव पदार्थों का आज्ञा अथवा अधिगम से श्रद्धान करने को सम्यग्दर्शन कहते हैं।
श्री कुम्कुन्द आचार्य ने सम्यग्दर्शन के निम्न लक्षण कहे हैं
" प्राप्त आगम और तस्व की श्रद्धा से सम्बग्दर्शन होता है।" नि० सा० गाथा ५ " तच्चरई सम्मत" अर्थात् तत्वचि सम्यग्दर्शन है। मो० पा० गाया ३८ "हिसारहितधर्म, अठारहदोषरहित देव नित्यगुरु का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है।' मो० पा० ९० "कालसहित पंचास्तिकाय और नवपदार्थ का श्रद्धान सम्यक्त्व है।" पं० का० गा० १०९ । "धर्मादि छह द्रव्यों का श्रद्धान सम्यक्त्व है ।" पं० का० गाथा १६० । “जीव, प्रजीव, पुण्य, पाप, आसव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष को भूतार्थंरूप से जानना सम्यग्दर्शन है।" समयसार गाथा १३ "छद्रव्य नवपदार्थ पाँचमस्तिकाय साततस्व ये जिन वचन में कहे हैं। तिनके स्वरूप को जो श्रद्धान करे सो सम्यदष्टि है।" दर्शन पाहू गाथा १९ जीवादि का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने व्यवहार से कहा है निश्चय से आत्मा ही सम्यक्त्व है णिच्छयदो अप्पाणं हवई सम्मत " दर्शनपाहुड़ गाथा २० ।
जीव और आत्मा एक ही द्रव्य के नाम हैं । अतः जीवादि के श्रद्धान में आत्मा का श्रद्धान भी गर्भित है । 'श्रात्मा का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है ।' यह भी भेदविवक्षा से कथन है, अतः व्यवहारनय का विषय है । 'आत्मा ही सम्यक्त्व है, ' यह अभेद विवक्षा से कथन है । इसमें गुण-गुणी का भेद नहीं है, अतः निश्चयनय का विषय है ।
जिसको सच्चे - देव, गुरु, शास्त्र अथवा धर्म का यथार्थश्रद्धान है उसको आत्मा का श्रद्धान होता है । ऐसा श्री कुन्दकुन्द भगवान ने प्रवचनसार में कहा है
जो जादि अरहंत, दम्यत्तगुणलपज्जयत हि ।
सो जाणवि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥ ८० ॥
अर्थ-जो धरहंत को द्रव्य, गुण, पर्यायरूप से जानता है वह आत्मा को जानता है और उसका मोह ( मिध्यात्व ) अवश्य नाश को प्राप्त होता है।
निश्चयसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्दर्शन का कथन अनेक दृष्टियों से किया गया है। गुण-गुणी की प्रभेदष्टि से सम्यक्त्व का कथन ( सम्यक्त्व ही आत्मा है या श्रात्मा ही सम्यक्त्व है ) निश्चयसम्यग्दर्शन, और जीवादि तत्वों का श्रद्धान या आत्मा का श्रद्धान व्यवहारसम्यग्दर्शन है, क्योंकि यह भेददृष्टि से कथन है। निश्चय और व्यवहारसम्यग्दर्शन का इसप्रकार लक्षण करने में दोनों सम्यग्दर्शन साथ रह सकते हैं।
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