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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व । [ १२०६ तम्मिवेसे तेण विहारण तम्मिकालम्मि को सक्कह चालेदु इंदो अह जिणिवो वा ।। ३२२ ॥ ऐसा निश्चय करनेवाले को ही सम्यग्दृष्टि कहते हैं, संशय करने वाले को मिथ्यादृष्टि-'एवं जो णिच्चयदो जाणदिव्याणि सब्द पज्जाए। सो सविट्ठी सुद्धो जो संकदि सो हु कुट्ठिो ।। ३२३ ॥ उपयुक्त जनसंदेश के उत्तर में इससे विरोध लक्षित होता है, क्योंकि नियतिवाद का लक्षण तो श्री पंचसंग्रह और गोम्मटसार से बताया है और उसे षट्खंडागम में मिथ्यात्व घोषित किया है । इसलिये विरोध यह आया है। उपर्युक्त गाथा से जसा नियतिवाद का स्वरूप बताया है वैसा ही स्वरूप सिद्ध होता है। फिर आचार्य ने इसकी श्रद्धा करनेवाले को सम्यग्दृष्टि और शंका करनेवाले को मिथ्यादृष्टि बताया है ? ऐसा क्यों? केवलीभगवान सब द्रव्यों को कालिक सबपर्यायों को जानते हैं तो हम उसमें कुछ भी परिवर्तन कर सकते हैं या नहीं । अगर हाँ तो उनका जान सम्यक् नहीं रहेगा और नहीं तो फिर नियतिवाद ठहर जायगा या नहीं जो कि समाधान के शब्दों में गृहीतमिथ्यात्व है। ऐसी स्थिति में सर्वज्ञता भी यथार्थ सिद्ध नहीं होती। समाधान-शंकाकार को यह भ्रम हो गया कि 'नियतिवाद' का स्वरूप जो पंचसंग्रह व गोम्मटसार ग्रंथों में कहा गया है, किन्तु उन ग्रन्थों में नियतिवाद को मिथ्यात्व नहीं कहा है । जनसंदेश २६-९.५७ में समाधान के प्रारंभ में लिखा है-'पंचसंग्रह ग्रंथ के प्रथम परिच्छेद को गाथा ३०८ से ३१७ तक मिथ्यात्व का कथन है। ग्रहीतमिथ्यात्व के भेदों में से 'नियति' मिथ्यात्व भी है जिसका स्वरूप गाथा ३१२ में इसप्रकार दिया है।' समा. धान के इन शब्दों से स्पष्ट है कि 'पंचसंग्रह' ग्रंथ में भी नियतिवाद को मिथ्यात्व कहा है। समाधान के इन शब्दों से 'इसीप्रकार गोम्मटसार कर्मकांड में कहा है।' यह सिद्ध है कि गोम्मटसार में भी नियति को मिथ्यात्व कहा है। शंकाकार का यह कहना-'उत्तर में इससे विरोध लक्षित होता है, क्योंकि नियतिवाद का लक्षण तो श्री पंचसंग्रह और गोम्मटसार से बताया है और उसे मिथ्यात्व षटखंडागम से घोषित किया है। इसलिये विरोध यह माया है।' कहाँ तक उचित है स्वयं शंकाकार विचार कर लें। यदि पंचसंग्रह व गोम्मटसार से उक्त प्रकरण देख लिया जाता तो संभवतः शंकाकार का बहुत कुछ समाधान हो जाता। २६-६-५७ के जनसंदेश में समाधानरूप से जो लिखा गया है वह धी पंचसंग्रह, गोम्मटसार, कर्मकांड व षटखंडागम के शब्द लिखे गये हैं। श्री अमितगति आचार्य ने तथा श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवति ने नियति' को स्पष्ट शब्दों में मिथ्यात्व कहा है। उन्हीं प्राचार्यो के शब्द समाधान में लिखे गये हैं। मूल प्रश्न यह रह जाता है कि पंचसंग्रह गाथा ३१२ व गो० क. गा०८८२ का और स्वामि कार्तिकेयानप्रेक्षा की गाथा ३२१-३२२-३२३ का परस्पर विरोध क्यों है? इस प्रश्न का समाधान भी २६-९-५७ के जनसंदेश में गौणरूप से दिया हुआ है फिर भी संक्षेप से पुनः विचार किया जाता है । __ जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय ( मिथ्यात्व ) हैं, क्योंकि परसमयों ( मिथ्यास्वियों) का वचन सर्वथा ( अपेक्षारहित ) कहा जाने से वास्तव में मिथ्या है और जनों का वचन कथंचित् ( अपेक्षासहित ) कहा जाने से वास्तव में सम्यक् है ( प्रवचनसार परिशिष्ट, गो० क० गाथा ८९४-८९५)। जिसप्रकार द्रव्य 'निस्यानित्यात्मक' है। यदि प्रनित्यनिरपेक्ष द्रव्य को सर्वथा नित्य माना जावे तो मिथ्याष्टि है। यदि अनित्यसापेक्ष द्रव्य की नित्यता में संदेह या शंका की जावे तो मिथ्यादृष्टि है। इसीप्रकार अन्यनयसापेक्ष वस्तु को 'नियतिस्वरूप' माननेवाला सम्यग्दृष्टि है और शंका ( संदेह ) करनेवाला मिथ्यादृष्टि है । अन्यनय निरपेक्ष वस्तु को नियतिस्व. रूप' माननेवाला मिथ्याडष्टि है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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