________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १२०७
णमाई जाती है । अतः परपदार्थ के कारण से भी परिणाम पर असर पड़ता है और उसके अनुकूल परिणमन भी हो जाता है।
-जं. सं. 22-1-59/V/सो. अ. शाह कलोल, गुजरात
क्रमबद्धपर्याय (नियतिवाद)
क्रमबद्ध पर्याय
शंका-द्रव्य की प्रत्येक पर्याय क्रमबद्ध ही होती है या अक्रम भी ? एकगुण की एकसमय में एक ही पर्याय होती है या अधिक भी? यदि नहीं होती तो एक स्पर्श गुण की एक समय में दो पर्याय होती हैं जैसे शीत, स्निग्ध या रूक्ष, उष्ण । और प्रत्यक्ष देखते भी हैं जो आम १० दिन बाद पकता है वह आम पाल आदि में बचा देने से समय से पहले भी तैयार हो जाता है, इसलिए पर्याय क्रमपूर्वक ही होती है, यह समझ में नहीं आता।
समाधान-द्रव्य की प्रत्येक पर्याय क्रम से ही होती है, क्योंकि सहभावी को गुण और क्रमभावी को पर्याय कहा है, किन्तु प्रत्येक पर्याय का काल नियत है या अनियत, इस विषय में एकान्त नहीं है। श्री प्रवचनसार ग्रंथ की श्रीमदमृतचन्द्रसरिकृत तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति के अन्त में परिशिष्ट रूप से ४७ नयों का कथन किया है। उन ४७ मयों में से ३० वें कालनय का कथन इसप्रकार किया है-कालनयेन निदाद्यदिवसानुसारिपच्यमान सहकारफलवत्समयायत्तसिदिः॥३०॥ अर्थ-प्रात्मद्रव्य कालनय से जिसकी सिद्धि समयपर आधार रखती है. गर्मी के दिनों के अनुसार पकने वाले प्राम्रफल की भांति है। ३१ वें अकालनय का कथन इसप्रकार है-अकालनयेन कृत्रिमोष्मपाच्यमान सहकारफलवत् समयानायत्तसिद्धिः ॥३१॥ अर्थ-आत्मद्रव्य अकालनय से जिसकी सिद्धि समय पर आधार नहीं रखती. कृत्रिम गर्मी से पकाये गये प्राम्रफल की भाँति है। वस्तुस्वरूप अनेकान्तात्मक है अतः एकान्त पक्ष का आग्रह करना उचित नहीं है। गोम्मटसार कर्मकाण्ड में कहा है
जत्तु जवा जेण जहा, जस्स य णियमेण होदि तत्तु तदा।
तेण तहा तस्स हवे, इदि वादो णियदिधावो दू ॥ ८८२ ॥ अर्थ-जो जिस समय, जिससे, जैसे, जिसके नियम से होता है, वह उस समय, उससे, तैसे, उसके ही होता है। ऐसे नियम से सब वस्तुओं का मानना उसे नियतिवाद कहते हैं । ( यह गाथा एकान्त मिथ्यात्व के भेद कहते हुए कही है । ) वस्तुस्वरूप नित्यानित्यात्मक होते हुए भी वैराग्य बढ़ाने के लिए प्रनित्यभावना कही है, नित्यभावना नहीं कही है। इसीप्रकार वस्तुस्वरूप नियत ( कालनय ), अनियत ( अकालनय ) होते हुए भी स्वामीकार्तिकेयानक्षा में इसप्रकार कहा है
जं जस्स जम्मिदेसे, जेण विहारपेण तम्मिकालम्मि । णादं जिरोण णियदं, जम्मव अहव मरणं वा ॥३२१ ॥ तं तस्स तम्मि देसे, तेण विहारणेण तम्मि कालम्मि । को सक्कइ चालेदु, इंदो वा अह जिगिदो वा ॥ ३२२ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org