________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ११५३
सर्व नरकों में, सर्वप्रकार के भवनवासी देवों में, सर्वद्वीप और समुद्रों में, सर्व व्यन्तरदेवों में, समस्त ज्योतिष्कदेवों में विमानवासीदेवों में श्राभियोग्य जाति के श्रौर प्रताभियोग्य जाति के देवों में दर्शनमोहनीयकर्म का उपशम होता है । साकारोपयोग में वर्तमान जीव ही दर्शनमोहनीयकर्म के उपशमन का प्रस्थापक होता है, किन्तु निष्ठापक और मध्यम अवस्थावर्ती जीव भजितव्य है । तीनों योगों में से किसी एक योग में वर्तमान और तेजोलेश्या के जघन्य अंश को प्राप्त जीव दर्शनमोह का उपशामक होता है। अर्थात् उपशमसम्यक्त्व को उत्पन्न करता है । सम्यक्त्वोत्पत्ति का यह सब कथन भी पर्यायदृष्टि से किया गया है । इससे स्पष्ट है कि सापेक्ष पर्यायदृष्टि से सम्यक्त्व उत्पन्न होता है ।
द्रष्टि सो सामान्यदृष्टि, क्योंकि "सामान्यं द्रव्यं चैकार्थवाचकाः ।" तत्त्वार्थसार
"पर्यायदृष्टि सो विशेषदृष्टि, क्योंकि विशेषश्च पर्यायश्चकवाचकाः ।" तत्त्वार्थसार किन्तु सामान्य की अपेक्षा विशेष बलवान होता है। कहा भी है
"सामान्यशास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान् भवेत् ।"
सामान्य शास्त्र तैं विशेष बलवान् है, क्योंकि विशेष ही तं नीकै निर्णय हो है । इसीलिये कुन्दकुन्दाचार्य ने पंचास्तिकाय के मोक्षमार्ग प्ररूपक दूसरे अधिकार में जीवतत्त्व का पर्यायों की अपेक्षा विशेष कथन किया है । गाथा १०६ में संसारी व मोक्षपर्याय की अपेक्षा से जीवतत्त्व का कथन है । गाथा ११० से १२२ तक इन्द्रिय, गति, भव्य, अभव्य, कर्त्ता, भोक्ता आदि पर्यायों की अपेक्षा संसारीजीव का विशेष कथन है । जीवपदार्थ के कथन का उपसंहार करते हुए श्री कुन्दकुन्दाचार्य लिखते हैं
-
एवमभिगम्म जीवं अोहि वि पज्जएहि बहुगे ।
अभिगच्छतु अज्जीवं जाणं तरिहि लिंगेहि ॥ १२३ ॥ ( पंचास्तिकाय )
इसप्रकार अन्य भी बहुतसी पर्यायों द्वारा जीव को जानकर, ज्ञान से अन्य ऐसे जड़ लिंग द्वारा अजीवपदार्थ को जानो ।
यदि द्रव्यदृष्टि सम्यग्दृष्टि तथा पर्यायदृष्टि मिध्यादृष्टि ऐसा सिद्धान्त होता तो श्री कुन्दकुन्दाचार्य मोक्षमारूपक अधिकार में जीवपदार्थ का पर्यायों की अपेक्षा क्यों कथन करते तथा श्री अमृतचन्द्राचार्य 'बहुभिः पर्यायः जीवमधिगच्छेत् ।' अर्थात् बहुतपर्यायों द्वारा जीव को जानो ऐसी आज्ञा क्यों देते ?
यथार्थ दृष्टि से पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है । जिसकी मात्र सामान्य पर दृष्टि है, विशेष ( पर्याय ) पर दृष्टि नहीं है, वह सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता है ।
२७ मई १९७१ के जैनसन्देश के सम्पादकीय लेख में जो प्रवचनसार का उल्लेख है अब उसपर विचार किया जाता है ।
Jain Education International
उक्त सम्पादकीय लेख में प्रवचनसार गाथा १८९ की टीका का कुछ भाग उद्धृत किया गया है, किन्तु इस टीका का द्रव्यदृष्टि या पर्यायदृष्टि से कोई सम्बन्ध नहीं है और न इस टीका का मिध्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि से कोई सम्बन्ध है, वह टाका इसप्रकार है
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org