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१९५० ।
पं. रतनचन्द जैन मुख्तार!
चेतन को है उपयोगरूप विनमूरति चिनमूरति अनूप । पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनतें न्यारी है जीव चाल ॥ ताको न जान विपरीत मान, करि कर देह में निज पिछान । मैं सुखी दुःखी मैं रंक राव, मेरो धन गृह गोधन प्रभाव ॥ मेरे सुत तिय मैं सबलदोन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीन । तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाशमान ।
जो कोई जीव के लक्षण उपयोग को स्वीकार नहीं करता, किन्तु शरीर को ही आपा मानता है, शरीर की उत्पत्ति से अपनी उत्पत्ति और शरीर के नाश से अपना नाश मानता है। शरीर के सुख में अपने आपको सुखी और शरीर के दुःख में अपने आपको दुःखी मानता है उसको यहां पर मिथ्यादृष्टि कहा है। जिसको अपनी ज्ञाननिधि की खबर नहीं है, बाह्यनिधि के कारण अपने आपको रंक व राव मानता है, उसको यहां पर मिथ्यादष्टि
कहा है।
_छहढाला में पर्यायदृष्टि को मिथ्यादृष्टि नहीं कहा है बल्कि पर्यायदृष्टि का उपदेश दिया गया है और पर्यायदृष्टि से मुक्ति बतलाई है । वह कथन इसप्रकार है
"यह मानुष परजाय, सुकुल सुनिवो जिनवानी। इह विधि गये न मिले, सुमणि ज्यों उदधि समानो ॥" "बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आतम हूजे ।
परमातम को ध्याय निरंतर, जो नित आनन्द पूजे ॥" वज्रनाभि चक्रवर्ती पर्याय दृष्टि से विचार करते हैं
"मैं चक्री पद पाय निरन्तर भोगे भोग घनेरे,
तो भी तनिक भये नहीं पूर्ण, भोग मनोरथ मेरे ।" इस पर्यायदृष्टि को रखते हुए भी वज्रनाभिचक्रवर्ती मिथ्यादृष्टि नहीं हुए।
'पर्यायष्टि मिथ्यादृष्टि' यदि इस सिद्धांत को मान लिया जाय तो अनित्य, अशरण, संसार, अशुचि शादि भावनाओं का श्रद्धान करनेवालों के मिथ्यात्व का प्रसंग आ जायेगा, क्योंकि ये भावना पर्यायदृष्टि की अपेक्षा से संभव है। द्रव्यदृष्टि की अपेक्षा से अनित्य आदि भावना संभव नहीं है, क्योंकि द्रव्यदृष्टि में नित्यता स्वीकार की गई है।
राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार । मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी बार ॥ बल बल देई देवता, मात पिता परिवार । मरती विरियां जीव को, कोई न राखनहार ॥ दाम बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान ।
कहूं न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ॥ इसप्रकार पर्यायदृष्टि से श्रद्धा करनेवाला मिध्यादष्टि नहीं है, अपितु सम्यग्दृष्टि है।
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