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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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(२) सुनने के भाव में सुनने वाले को नुकसान है और सुनाने के भाव में सुनाने वाले को नुकसान है। अपनी अपनी योग्यता के अनुसार दोनों को नुकसान है।
(३) देव, गुरु, शास्त्र की ओर लक्ष्य जाता है उसमें नुकसान ही है, लाभ नहीं है यह बात पक्की हो जानी चाहिये।
समाधान-बाह्य पदार्थों के साथ जीव-आत्मा का ज्ञेय-ज्ञायक, निमित्त-नैमित्तिक आधार-आधेय, श्रद्धेयश्रद्धा इत्यादि सम्बन्ध हैं। श्री समन्तभद्राचार्य ने कहा भी है
श्रद्धानं परमार्थानामाप्ताऽऽगमतपोभृताम् ।
त्रिमूढापोढमष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥४॥ परमार्थस्वरूप आप्त-आगम व तपस्वियों का जो, अष्टप्रंग सहित, तीनमूढ़ता रहित तथा मदविहीन, श्रद्धान है वह सम्यग्दर्शन है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी इसी प्रकार कहा है
अत्तागमतच्चाणं सद्दहणावो हवई सम्मत्तं ।
ववगयअसेसदोसो सयलगृणप्पा हवे अत्ता ॥ आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान से सम्यग्दर्शन होता है। जिसके समस्त दोष नष्ट हो गये हैं तथा जो समस्त गुणों से तन्मय है ऐसा पुरुष आप्त कहलाता है ।
छह वश्व णवपयत्या पंचत्थी सत्त तच्च णिहिट्ठा।
सद्दहह ताण एवं सो सद्दिट्ठी मुणेयन्वो ॥१९॥ ( दर्शनपाड़ ) छहद्रव्य, नौपदार्थ, पांचस्तिकाय और साततत्व जिनेन्द्र द्वारा कहे गये हैं। जो उनके स्वरूप का श्रद्धान करता है, वह सम्यग्दृष्टि है।
सुत्तत्यं जिणभणियं जीवाजीवादिबहुविहं अत्थं ।
हेयाहेयं च तहा जो जाणइ सो हु सट्ठिी ॥५॥ सूत्रपाहुड़ जो मनुष्य जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे हुए सूत्र के अर्थ को, जीव-अजीव आदि बहुत प्रकारके पदार्थों को तथा हेय-उपादेय को जानता है वह वास्तव में सम्यग्दृष्टि है। इसी बात को श्री अमृतचन्द्राचार्य भी कहते हैं ।
जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्तव्यम् ।
श्रद्धानं विपरीतामिनिवेशवि विक्तमात्मरूपं तत् ॥ पुरुषार्थ सिद्धच पाय जीव-अजीव आदि तत्त्वार्थों का विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान करना चाहिए, क्योंकि वह श्रद्धान आत्मा का गुणरूप सम्यग्दर्शन है।
श्री वीरसेनाचार्य ने भी कहा है
"तत्त्वार्थभवानं सम्यग्दर्शनं । अस्य गमनिकोच्यते, आप्तागमपदार्थस्तत्त्वार्थस्तेषु भवानमनुरक्तता सम्यादर्शन मिति लक्ष्यनिर्देशः।"
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