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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार । मोक्षमार्ग में अवलम्बन शंका-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकतारूप जो मोक्षमार्ग है वह किसके अवलम्बन से होता है ? क्या पारिणामिकमाव के अवलम्बन से होता है ?
समाधान-सात तत्वों के श्रद्धान व ज्ञान से सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है कहा भी है 'तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥२॥ 'जीवाजीवात्रवबन्ध-संबर-निर्जरा-मोक्षास्तत्वम् ॥ ४॥ ( मो. शा. प्रथम अध्याय) इसीप्रकार समयसार में भी कहा है
'भूयस्थेणाभिगवा जीवाजीवा य पुण्णपावं च ।
आसवसंवरणिज्जर बंधोमोक्खो य सम्मत्त ॥१३॥' नियमसार गाथा ५ में भी कहा है
'अत्तागमतच्चाणं सद्दहणावो हवेइ सम्मत्तं ।' बृहद्वव्यसंग्रह में भी कहा है
जीवावीसहहणं सम्मत्त स्वमप्पणो तं तु ।
दुरमिणिवेस-विमुक्कं गाणं सम्म खु होदि सदि जम्हि ॥४१॥ इसप्रकार से जीवादि सात तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है और वह सम्यग्दर्शन निश्चय से आत्मा का ही परिणाम है अतः निश्चय से आत्मा ही सम्यग्दर्शन है और दुरभिनिवेश ( संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय ) से रहित सम्यग्ज्ञान है।
वृहद्रध्यसंग्रह गाथा ४५ व ३६ में चारित्र का लक्षण कहा है । निश्चयसम्यक्चारित्र का लक्षण इसप्रकार कहा है-'संसार के कारणों को नष्ट करने के लिये ज्ञानी जीव के जो बाह्य और अन्तरंग क्रिया का निरोध है वह निश्चयचारित्र है।' चारित्र में भी ध्यान की मुख्यता है क्योंकि कर्मों की विशेष निर्जरा ध्यान से होती है। इस ध्यान में किसका अवलम्बन होता है ध्येय क्या होता है ? इस विषय में वृहद्रव्यसंग्रह गाथा ५५ में कहा है जिस किसी पदार्थ का ध्यान करते हुए साधु जब निस्पृहवृत्ति ( समस्त इच्छारहित ) होते हुए एकाग्रचित्त होते हैं तब उनका वह ध्यान निश्चयध्यान होता है।' ध. पु. १३ पृ ७० पर ध्येय का कथन करते हुए कहा है कि 'जिनदेव, द्वारा उपदिष्ट नी पदार्थ, बारह अनुप्रेक्षा, श्रेणी आरोहण विधि, तेईस वर्गणायें, पाँच परिवर्तन, प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग अथवा यह लोक ध्यान के पालम्बन से भरा हुआ है, क्योंकि क्षपक मन से जिस-जिस वस्तु को देखता है वह वह वस्तु ध्यान का आलम्बन होती है।' आज्ञाविचय, विपाकविचय और संस्थान विचय ये सब धर्मध्यान हैं। मात्र पारिणामिकभाव के आलम्बन से ध्यान होता है, ऐसा एकान्त नहीं है, किन्तु नीचली अर्थात प्रारम्भिक अवस्था में आत्मा के शूद्ध स्वरूप अर्थात परमात्मा के स्वरूप को ध्येय बनाना चाहिये, क्योंकि वहां पर अन्य ध्येयों में रागादि की उत्पत्ति की सम्भावना है।
पारिणामिकभाव तो न बन्ध का कारण है और न मोक्ष का कारण है। क्योंकि पारिणामिकभाव अनादिअनन्त होने से नित्य हैं। नित्य में अर्थ-क्रिया बनती नहीं। स्पष्ट है कि प्रक्रिया क्रमशः या युगपत् होती है और क्रम तथा योगपद्य नित्य में बनते नहीं। पारिणामिकभाव न शुद्ध हैं, न ही प्रशुद्ध हैं, क्योंकि वह नित्य हैं। नित्य होने से न वह कारण है और न कार्य है । कहा भी है
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