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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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गया है। साधारण मिथ्यात्वीजीव के ऐसे विशुद्धपरिणाम, जो द्रव्यकर्मों को निर्जीर्णरस कर देवें, नहीं होते हैं अतः उसके प्रविपाकद्रव्यनिर्जरा संभव नहीं है। इसके लिये तत्त्वार्थ राजवातिक अध्याय १, सूत्र ४ वातिक १९ की टीका, देखनी चाहिये।
-जं. ग. 5-12-74/VIII/ ज. ला. जैन, भीण्डर अविपाक निर्जरा पुण्य भाव नहीं है शंका-आपने लिखा है कि आत्मा के जो परिणाम (अविपाकनिर्जरा के नाम से पुकारी जानेवाली) द्रव्यनिर्जरा के कारण हैं उनको भावनिर्जरा कहते हैं । शंका-अविपाक निर्जरा तो पुण्यमाव से होती है, उसको भावनिर्जरा कैसे कहा जा सकता है । पुण्यभाव से तो पुण्यबन्ध पड़ता है और भावनिर्जरा तो स्वभावभाव है । पुण्यभाव को स्वभावभाव कहना कहाँ तक सत्य है ? आप ही सोचिये।
भावनिर्जरा तो चारित्रगुण की अंश में शुद्ध अवस्था है और चारित्रगुण में श्रद्धा तथा ज्ञानगुण का अभाव है । तब श्रद्धा ( दर्शन ) तथा ज्ञान से निर्जरा मानना कहां तक योग्य है ? खुलासा करें।
समाधान-प्रविपाकनिर्जरा पुण्यभाव नहीं है। अविपाकनिर्जरा को शुभभाव लिखा हो ऐसा मेरे देखने में नहीं आया। प्रविपाकनिर्जरा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से होती है, यह तीनों प्रात्मा के निजभाव । भावनिर्जरा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से भी गौणरूप से होती है। असंयतसम्यग्दृष्टि के अनन्तानबंधी चौकडी की विसंयोजना के लिए जो तीन करणरूप परिणाम होते हैं उनके कारण निर्जरा होती है। अत: ये तीन करणरूप परिणाम निर्जरा के हेतु होने से भावनिर्जरा कहलाते हैं। इसीप्रकार जब असंयतसम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व मिश्र और सम्यक्त्वप्रकृतियों को क्षपणा होती है उससमय भी तीन करणरूप परिणाम होते हैं जो निर्जरा के देत हैं। अतः उक्त तीन करणरूप परिणाम भी निर्जरा हैं। इसप्रकार असंयतसम्यग्दृष्टि के भी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से भावनिर्जरा गौणरूप से होती है।
-ज.स. 7-6-56/VI/क. दे. गया सम्यक्त्वी के भोग भी निर्जरा का कारण ? शंका-सम्यग्दृष्टि के भोगनिर्जरा का कारण बतलाया है। यहां भोग से भोगोपभोग की सामग्री से अभिप्राय है या कर्म का उदय आना? क्या उससमय लेशमात्र भी बन्ध नहीं होता?
समाधान-वीतरागसम्यग्दृष्टि के भोग निर्जरा के कारण हैं ऐसा समयसार में कहा गया है
उवभोगमिवियहि दवाणमचेदणाण मिदराणं ।
जं कुणदि सम्मविट्ठी तं, सव्वं णिज्जरणिमित्तं ॥१९३॥ अर्थ-सम्यग्दृष्टि जीव जो इन्द्रियोंकरि चेतन और अचेतन द्रव्यों का उपभोग करता है वे सब ही निर्जरा के निमित्त हैं।
इसकी टीका में श्री १०८ अमृतचन्द्राचार्य लिखते हैं-"वीतरागस्योपभोगो निर्जरायायैव ।" अर्थातवीतराग के उपभोग निर्जरा के लिये हैं।
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