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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
यस्य रागोऽणुमात्रेण विद्यतेऽन्यत्र वस्तुनि । आत्मतत्व-परिज्ञानी बध्यते
कलिलेरपि ॥ १४७ ॥ योगसार प्राभृत
अर्थ - जिसके पर वस्तु में अणुमात्र अर्थात् अतिसूक्ष्म भी राग विद्यमान है, वह आत्मतत्त्व का ज्ञाता होने पर भी कमंप्रकृतियों से बंधता है ।
इस पद्य में श्री अमितगति आचार्य ने यह बतलाया है कि जो योगी ( मुनि ) आत्मतत्त्व का परिज्ञाता तो है, परन्तु पर-वस्तु में बहुत सूक्ष्मराग भी रखता है तो वह अवश्य कर्मबन्धन से बंध को प्राप्त होता है, मात्र सम्यग्दर्शन कर्मबंध रोकने में समर्थ नहीं है, उसके लिये रागद्वेष के प्रभावरूप सम्यक्चारित्र का होना भी जरूरी है ।
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चतुर्थगुणस्थानवाले अविरत सम्यग्दष्टि के लेशमात्र भी चारित्र नहीं है और रागद्वेष की बहुलता है अतः वह कर्मों से अवश्य बंधता है । अविरतसम्यष्टि के कर्मबंध नहीं होता है ऐसा कहना एक बड़ी भारी भूल है । दंसणणाणचरितं जं परिणमदे जहण्णभावेण ।
गाणी तेण तु बज्झवि पुग्गलकम्मेण विवहेण ॥। १७२ ।। समयसार
अर्थ – जब तक सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप रत्नत्रय जधन्यभाव से परिणमता है, तबतक ज्ञानी ( मुनि ) भी नानाप्रकार के पुद्गलकर्मों से बंधता है ।
इस गाथा में बतलाया गया है कि यथाख्यातचारित्र से पूर्व सम्यग्दष्टिमुनि के सम्यग्दर्शन - ज्ञान- चारित्र जघन्यभाव से परिणमते हैं अतः उस मुनि के पुद्गलकर्मों का साम्परायिकबंध होता रहता है । अविरतसम्यग्दृष्टि के तो चारित्र भी नहीं है, उसके तो कर्मों का बंघ होना श्रवश्यंभावी है । अविरतसम्यग्दष्टि प्रबंधक नहीं हो सकता है।
दंसणणाणचरिताणि मोक्खमग्गो ति से विदण्याणि ।
साहि इवं मणिदं तेहि दु बंधो व मोक्खो वा ॥ १६४ ॥ पंचास्तिकाय
अर्थ - सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्र मोक्षमार्ग है इसलिये वे सेवने योग्य हैं। ऐसा साधुओं ने कहा है । परन्तु उन सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र से बंध भी होता है और मोक्ष भी होता है ।
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इस गाथा में भी श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने बतलाया है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र यद्यपि मोक्षमार्ग हैं तथापि जबतक वे जघन्यभाव से परिणमते हैं उन सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र से साम्परायिक कर्मबंध होता है। अविरतसम्यग्दष्टिके तो मात्र सम्यग्दर्शनज्ञान है भोर वह भी जघन्यभाव से परिणत है उसके तो साम्परायिक कर्मबंध अवश्य होता है ।
जो श्री गौतम गणधर ने द्वादशांग के 'महाकमंप्रकृतिप्राभृत' में कहा है इसी को भी कुन्दकुन्दादि आचार्यों ने कहा है । फिर भी यदि कोई प्रविरतसम्यग्दृष्टि के कर्मबंध स्वीकार नहीं करता तो यह उसकी भूल है । - जै. ग. 31-5-70 / VII / रो. ला. मित्तल
(१) बम्ध होने पर स्वतंत्रता नष्ट होकर परतन्त्रता उत्पन्न हो जाती है (२) शरीर परमाणुरूप नहीं, स्कन्धरूप है
शंका- सोनगढ़ से प्रकाशित 'ज्ञानस्वभाव - ज्ञेयस्वभाव' पुस्तक के पृ० ७१ का प्रत्येक परमाणु स्वतंत्ररूप से परिणमित हो रहा है, उसे कोई दूसरा बबल वे ऐसा
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पर लिखा है- "शरीराविक तीनकाल में भी नहीं हो
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