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व्यक्तित्व और कृतिश्व ]
[ १०८९
अर्थ --प्रवचन के अभ्यास से देव, मनुष्य और विद्याधरों के सर्वसुख प्राप्त होते हैं तथा सिद्धसुख भी प्राप्त होता है।
शुमोपयोग ( शुभपरिगति ) से बन्ध के साथ संवर व निर्जरा भी होती है शंका- शुभ भावकर्म निर्जरा में कारण नहीं होते ऐसा क्यों ?
- ग. 5 व 12-10-72 / IX-X-VI-IX / टोला. न
समाधान- - शुभभावों से कर्मनिर्जरा भी होती है। यदि शुभभावों से कर्मनिर्जरा न हो तो कभी मोक्ष नहीं हो सकता है । अनादिमिध्यादृष्टि जब प्रथमोपशमसम्यक्त्व के प्रभिमुख होता है तो उसके क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य, करण ये पाँच लब्धियाँ होती हैं । अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के भेद से कररणतीन प्रकार की है। उनमें से अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन दो करणलब्धि में गुणश्रेणी निर्जरा, स्थितिखंडन और अनुभागखण्डन होता रहता है । कहा भी है-
गुणसेढीगुणसंकम द्विविरसखंडा गुणसंकमण समा मिस्साणं
पूर्वकरण के प्रथमसमय से लेकर जबतक सम्यक्त्वमोहनीय मिश्रमोहनीय का पूर्णकाल है तबतक गुणश्रेणीनिर्जरा, गुणसंक्रमण, स्थितिखंडन, अनुभागखंडन ये चार आवश्यक होते हैं ।
अपुष्वकरणावो । पूरणोति हवे || ५३ || ( लब्धिसार )
अतः यहाँ पर मिध्यादष्टि के गुण श्रेणी निर्जरा के कारण शुभोपयोग अर्थात् शुभभाव ही हो सकते हैं, क्योंकि मिथ्याष्टि के शुद्धोपयोग प्रर्थात् शुद्धभाव नहीं हो सकता है। और अशुभभाव संवर व निर्जरा का कारण होता नहीं । यदि शुभभाव को निर्जरा का कारण न माना जाय तो अनादिमिध्यादृष्टि के प्रथमोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्ति नहीं होने से कर्मों का क्षय अर्थात् मोक्ष हो नहीं सकता। कहा भी है
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"सुह- सुद्ध परिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तदो ।" [ जयधवल पु० १ ० ६ ]
यदि शुभपरिणामों से और शुद्धपरिणामों से कर्मों का क्षय न माना जाय तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता ।
यान शुभोपयोग है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी कहा है
विनाश होता है ।
जिनवरदेव ने भाव तीनप्रकार कहा है-शुभ, अशुभ और शुद्ध । यहाँ अशुभभाव तो आर्त्तरौद्र ये ध्यान हैं और शुभ है सो धमंध्यान है ।
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भावं तिविपयारं सुहानुहं सुद्धमेव णायव्यं ।
असुहं च अट्टरुद्द सुह धम्मं जिणर्वारिदेहि ॥ ७६ ॥
धर्मध्यानरूप शुभ परिणामों में ही मोहनीयकमं का क्षय करने की सामर्थ्य है । कहा भी है"मोहणीय विनासो पुण धम्मज्झाणफलं, सुहुमसांपरायचरिमसमय तस्स विणावलंभादो ।"
मोहनी का विनाश करना धर्मध्यान का फल है, क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान के अंतिमसमय में उसका
धवल पु० १३ पृ० ८१
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