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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार :
यहाँ पर भी धर्म को पुण्यबन्ध के द्वारा स्वर्गसुख को देनेवाला और कर्मों के नाश से मोक्षसुख को देनेवाला बतलाया गया है।
ओंकारं बिन्दुसंयुक्त नित्यं ध्यायन्ति योगिनः ।
कामवं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नमः ।। बिन्दु संयुक्त ओंकार का योगिजन नित्यध्यान करते हैं। वह ओंकार पुण्यबन्ध के द्वारा सांसारिकसुख का तथा मोक्षसुख का देनेवाला है। इसलिये प्रोंकार के लिये नमस्कार हो।
चत्वार्येतानि मिश्राणि कषायः स्वर्गहेतवः ॥३०७॥ निकषायाणि नाकस्य मोक्षस्य च हितैषिणाम् ।
चतुष्टयमिव वम मुक्तेदु प्रापमङ्गिभिः ॥ ३०८ ॥ महापुराण पर्व ४७ श्री पं० पन्नालालजी कृत अर्थ-"चारों ही गुण ( सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप ) यदि कषायसहित हों तो ( पुण्यबंध होने से ) स्वर्ग के कारण हैं और कषायरहित हों तो प्रात्महित चाहनेवाले लोगों को स्वर्ग और मोक्ष दोनों के कारण हैं। ये चारों ही मोक्षमार्ग हैं और प्राणियों को बड़ी कठिनाई से प्राप्त होते हैं।" यहां पर कषायरहित सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप ये चारों स्वर्ग के कारण हैं, यह बात ध्यान देने योग्य है ।
तत्त्वार्थसूत्र में यद्यपि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥११॥ सूत्र द्वारा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को मोक्षमार्ग तथा "मिथ्यावर्शनाविरतिप्रमावकषाययोगा बंधहेतवः॥८१॥" सूत्र द्वारा मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग को बंधका कारण कहा है तथापि प्रध्याय छह में, जहां पर आस्रव के विशेष कारणों का कथन है, वहाँ पर सूत्र २१ में सम्यक्त्व तथा सूत्र २४ में दर्शनविशुद्धि आदि को भी बंध का कारण कहा है। पुरुषार्थ सिद्धय पाय के कर्ता श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी तस्वार्थसार में इसप्रकार कहा है
सरागसंयमश्चैव सम्यक्त्वं देशसंयमः । इति वेवायुषो हय ते भवन्त्यास्रवहेतवः ॥४॥४३॥ विशदिवंर्शनस्योच्चस्तपस्त्यागौच शक्तितः। नाम्नस्तीर्थकरत्वस्य भवन्त्यास्रवहेतवः ॥ ४१४९-५२ ॥
सरागसंयम, सम्यग्दर्शन, देशसंयम ये देवायू के आस्रव के कारण हैं।। ४३ ।। सम्यग्दर्शन की उत्कृष्टविशुद्धता, शक्ति अनुसार तप व त्याग इत्यादि सोलह तीर्थंकर नामकर्म प्रकृति के आस्रव के कारण हैं ।।४६-५२ ।। यहाँ पर सम्यग्दर्शन के साथ या सम्यग्दर्शन की उत्कृष्ट विशुद्धता तथा तप व त्याग के साथ राग विशेषण नहीं लगाया है।
यदि कहा जाय कि तीर्थकर व आहारकद्विक के बन्ध का कारण मात्रराग है, सम्यक्त्व व चारित्र तीर्थकरप्रकृति व आहारकद्विक के बंध के कारण नहीं हैं, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि नयशास्त्र तथा द्वादशांगसूत्रों से विरोध आता है। तीर्थंकर का बन्ध सम्यग्दर्शन के सद्भाव में होता है और सम्यग्दर्शन के अभाव में तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध नहीं होता है। तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध का सम्यक्त्व के साथ अन्वय-व्यतिरेक सुघटित हो जाने से कार्य-कारणभाव सिद्ध हो जाता है।
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