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[ पं• रतनचन्द जैन मुख्तार:
___समाधान-दिगम्बर महानाचार्य श्रीमदुमास्वामिविरचित त० सू० अ० ६ सू० २१ "सम्यक्त्वं च" में यह कहा गया है कि सम्यग्दर्शन देवायु के मास्रव का कारण है । इस सूत्रपर थी पूज्यपाव, श्री अकलंकदेव, श्री विद्यानन्दावि महापुरुषों ने टीकायें रची हैं, किन्तु किसी भी आचार्य ने इस सूत्र का यह अर्थ नहीं किया कि सम्यवत्व देवायु के आस्रव का कारण नहीं, किन्तु राग देवायु के आस्रव का कारण है। श्री विद्यानन्द आचार्य ने श्लोकवार्तिक में इस सूत्र की टीका में लिखा है
पृथक्सूत्रस्य निर्देशाद्ध तुर्वैमानिकायुषः ।
सम्यक्त्त्वमिति विज्ञेयं संयमासंयमादिवत् ॥५॥ इस सूत्र का पृथक् निरूपण करने से सम्यक्त्व वैमानिक देवों की आयु का हेतु है, यह समझ लेना चाहिये जैसे कि संयमासंयम व सरागसंयम वैमानिकदेवों को आयु का प्रास्रव कराते हैं । समयसार के टीकाकार श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी तत्त्वार्थसार में कहा है
सरागसंयमश्चैव सम्यक्त्वं देशसंयमः।
इति देवायुषो ह्यते भवन्त्यास्रवहेतवः।। ४३ ॥ सरागसंयम, सम्यक्त्व और देशसंयम ये देवायु के प्रास्रव के हेतु हैं । यहाँ पर भी सम्यक्त्व को देवायु के पास्रव का कारण कहा हैश्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी समयसार में कहा है
दसणणाणचरितं जं परिणमदे जहण्णभावेण ।
गाणी तेण दु बज्झवि पुग्गल कम्मेण विविहेण ॥१७२॥ जब तक दर्शन-ज्ञान-चारित्र जघन्यभावरूप परिणमते हैं तबतक उन जघन्यभावरूप परिणत दर्शन-ज्ञानचारित्र के कारण ज्ञानी जीव अनेक प्रकार के पुद्गलकर्मों से बँधता है।
इसप्रकार यथाख्यातचारित्र से पूर्वावस्था में प्रर्थात् दसवें गुणस्थानतक सम्यग्दर्शन-शान चारित्र से बंध भी होता है और संवर-निर्जरा भी होती है। यथाख्यातचारित्र हो जाने पर साम्परायिकआस्रव व बंध रुक जाता है। मात्र सातावेदनीय का ईर्यापथआस्रव होता है और संवर-निर्जरा विशेष होने लगती है ।
यदि कहा जाय कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तो मात्र मोक्ष के कारण हैं उनसे बन्ध सम्भव नहीं है सो ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने पंचास्तिकाय में इसप्रकार कहा है
दसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गो त्ति सेविवश्वाणि ।
साहिं इदं भणिवं तेहिं दु बंधो व मोक्खो वा ॥१६४॥ सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र मोक्षमार्ग है इसलिये वे सेवन योग्य हैं, ऐसा साधुओं ने कहा है, परन्तु उन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से बन्ध भी होता है व मोक्ष भी होता है ।
यदि यह कहा जाय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र एक ही कारण से बन्ध और मोक्ष ऐसे दो कार्य सम्भव नहीं है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक ही दीपक कज्जल ( कालिमा ) व प्रकाश दोनों का कारण देखा जाता है।
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