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१०६८)
[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार ।
समाधान-राग यद्यपि चारित्रमोहनीय घातियाकर्म का भेद है, और घातियाकर्म पापरूप है तथापि वह राग प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार का है। इनमें से प्रशस्तराग. घातियाकर्मरूप पापप्रकृति होने पर भी पुण्यबंध का कारण है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने पंचास्तिकाय में कहा भी है
रागो जस्स पसत्यो अणुकंपा संसिदो य परिणामो।
चित्तम्हि पत्थि कलुसं पुण्णं, जीवस्स आसवदि ॥१३५॥ -जिस जीव के प्रशस्त राग है, अनुकम्पायुक्त परिणाम हैं और चित्त में कलुषता ( संक्लेश ) का अभाव है उस जीव के पुण्य का पानव होता है ।
इस गाथा में श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने पुण्यास्रव के तीन कारण बतलाये हैं (१) प्रशस्तराग (२) अनुकम्पा (३) अकलुषता। इनमें से अकलुषता का स्वरूप बतलाते हुए श्री अमृतचन्द्राचार्य पंचास्तिकाय गाथा १३८ की टीका में निम्नप्रकार लिखते हैं।
"क्रोध-मानमायालोमानां तीवोदये चित्तस्य क्षोभः कालुष्यम । तेषामेव मंदोषये तस्य प्रसादोऽकालुष्यम् ।"
यहां पर यह बतलाया गया है कि क्रोध, मान, माया, लोभ का तीव्रउदय कलुषता ( संक्लेश ) है और उन्हीं क्रोधादि कषायों का मंदोदय अकलुषता है । कषायों का मंद उदय अर्थात् प्रकलुषता पुण्यासव व बंध का कारण है। कहा भी है
- "तच्चाकालुष्यं, पुण्यास्रवकारण भूतं ।" कषायों के मंदोदयरूप अकलुषता ( विशुद्धि ) भी पुण्यानब एवं बंध का कारण है। प्रवचनसार में भी श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है
अप्पा उवओगप्पा उवओगो, णाणसणं भणियो ।
सोवि सुहो असुहो वा उवभोगो, अप्पणो हववि ॥१५५॥ (प्र० सा० ) टीका-ज्ञानदर्शनोपयोगधर्मानुरागरूपः शुभः विषयानुरागरूपो द्वषमोहपश्चाशुभः । अशुखः सोपरागः । स त विशुद्धिसंक्लेशरूपत्वेन वैविध्योदुपरागस्य द्विविधः शुभोऽशुभश्च ।
उवओगो जवि हि सुहो पुण्णं, जीवस्स संचयं जादि ।
असुहो वा तध पावं तेसिम भावे चयमस्थि ॥ १५६ ॥ (प्र. सा० ) यहां पर यह बतलाया गया है कि ज्ञान-दर्शनमयी उपयोग यदि धर्मानुरागरूप है तो शुभ है यदि विषयानुराग है तो अशुभ है । अशुद्धोपयोग रागसहित होने के कारण विशुद्धि और संक्लेश से दो प्रकार का है । शुभोपयोग विशुद्धिरूप है और अशुभोपयोग संक्लेशरूप है।
प्रशस्तरागरूप शुभोपयोग अर्थात् विशुद्धि में कारण (पाश्रय ) का विपरीतता से प्रशस्तराग के फलस्वरूप पूण्य में भेद हो जाता है। इस बात को श्री कुन्दकुन्दाचार्य तथा श्री अमृतचन्द्राचार्य ने इस गाथा व टीका में कहा है
रागो पसत्थभूवो वत्युविसेसैण, फलवि विवरीदं । गाणाभूमिगवाणिह बीजाणिव, सस्सकालम्हि ॥२५५॥ ( प्र० सा० )
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