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व्यक्तित्व पौर कृतित्व ]
[१०५७ श्री अनन्तवीर्य आचार्य ने भी प्रमेयरत्नमाला में पुद्गल का चेतना पर प्रभाव पड़ता है यह सिद्ध किया है
"अमूर्ताया अपि चेतनशक्त मदिरामदनकोतवादिभिरावरणोपपत्तेः । इन्द्रियाणामचेतनानामाप्यनावृतप्रख्या त्वातू स्मृत्याविप्रतिबन्धायोगात् । नापि मनसस्तैरविरणम्, आत्मव्यतिरेकेणापरस्य मनसो निषेत्स्यमानत्वात् ।" २०१२
__ अर्थात-अमूर्त भी चैतन्यशक्ति का मदिरा, मदनकोद्रव आदि मूतंपदार्थों से आवरण होता हुमा देखा जाता है। यदि कहा जाय कि मदिरा आदि से इन्द्रियों का प्रावरण होता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रियाँ अचेतन हैं, सो उनका आवरण भी अनावरण के तुल्य है। यदि इन्द्रियों का आवरण माना जाय तो मदिरा पान करने वाले पुरुष के स्मृति प्रत्यभिज्ञान आदि ज्ञानों का अर्थात स्मरण आदि का प्रभाव नहीं होना चाहिये । यदि कहा जाय कि मदिरा आदि से मन का आवरण होता है, सो भी कहना ठीक नहीं क्योंकि आत्मा से अतिरिक्त भावमन का निषेध है। इसलिये अमूर्त चेतनशक्ति का आवरण नहीं होता, यह कहना ठीक नहीं है। [इसप्रकार मदिरा प्रादि का प्रभाव प्रात्मा पर पड़ता है ]
-जं. ग. 16-1-67/VII/ प्रो. ल. च. जन मन्द कषायरूप विशुद्ध परिणाम ही मिथ्यात्वी मुनि के ग्रेवेयक-प्रायु का बन्ध कराते हैं। ये ही
परिणाम सम्यक्त्व में भी कथंचित् कारण हैं शंका-क्या आर्त-रौद्र परिणामों में मिथ्यादृष्टि द्रालगोमुनि उपरिम प्रवेयक तक जाता है या धर्मध्यान से?
समाधान-मिथ्याडष्टि के धर्मध्यान नहीं होता है। सकषाय सम्यग्दृष्टिजीव के धर्मध्यान होता है। आतं और रोद्रध्यान या परिणाम भी उपरिमग्र वेयक की देवायु के बन्ध का कारण नहीं हो सकते। मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगीमुनि के जो मंदकषायरूप विशुद्धपरिणाम होते हैं वे ही देवायु के बन्ध के कारण हैं। ये मंदकषायरूप विशुद्धपरिणाम सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में भी कारण हो सकते हैं, क्योंकि मनुष्य या तिथंच के संक्लेशपरिणामों में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं होती। कहा भी है
"यद्यपि तिर्यग्मनुष्यो वा मन्दविशुद्धिस्तथापि तेजोलेश्याया जघन्यांशे वर्तमान एव प्रथमोपशमसम्यक्त्वप्रारम्भको भवति ।"लब्धिसार गा० १०१ टीका।
अर्थ-यदि तियंच या मनुष्य के मन्दविशुद्धता हो तो भी प्रथमोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्ति के लिये तेजोलेश्या के जघन्यमंश तो होने ही चाहिये। अर्थात् कृष्ण, नील, कापोतलेश्या में तिथंच या मनुष्य के प्रथमोपशमसम्यक्त्व का प्रारम्भ नहीं हो सकता।
श्री जयधवल में भी कहा है
"तिरिक्ख-मगुस्सेसु किण्हणील-काउलेस्साणं सम्मत्तुप्पत्तिकाले पडिसेहो कदो, विसोहिकाले असुहतिलेस्सापरिणामस्स संभवाणुववत्तीबरो।"
अर्थ-तियंच और मनुष्यों में कृष्ण, नील, कापोतलेश्या का सम्यक्त्वउत्पत्तिकाल में निषेध किया गया है, क्योंकि विशुद्धिकाल में तीन अशुभलेश्यारूप परिणाम संभव नहीं हैं।
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