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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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परिणाम को भाव कहते हैं क्योंकि परिणाम ( पर्याय ) छहों द्रव्यों में होते हैं अतः पुद्गल में भी भाव होते हैं। भाव पाँच प्रकार के होते हैं जैसा ष० खं० १० ५ पत्र १८८ पर कहा है-कदिविधो भावो? ओवइओ उवसमिओ खइओ खओवसमिओ पारिणामिओ त्ति पंचविहो । केण भावो ? कम्माणमुदएण खएण खओवसमेण कम्माणमुवसमेण सभावदो वा । तत्थ जीवदध्वस्स भावा उत्तपंचकारणेहितो होंति । पोग्गलदस्वभावा पण कम्मोदएण विस्ससावो वा उप्पज्जति । सेसाणं चदुण्हं वव्याणं भावा सहावदो उप्पज्जति ।
अर्थ-भाव कितने प्रकार का है ? औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक के भेद से भाव पाँच प्रकार का है। भाव किससे होता है ? भाव कर्मों के उदय से, क्षय से, क्षयोपशम से, उपशम से अथवा स्वभाव से होता है। उनमें जीवद्रव्य के भाव, उक्त पांचों ही कारणों से होते हैं, किन्तु पुद्गलद्रव्य के भाव, कौ के उदय से उत्पन्न होते हैं तथा शेष चार द्रव्यों के भाव स्वभाव से ही उत्पन्न होते हैं। इस आगमवाक्य से पुद्गलद्रव्य के भी औदयिकभाव सम्भव हैं, क्योंकि पूर्वमोहनीय द्रव्यकर्म के उदय से नवीन द्रव्यकर्म का बन्ध होता है अथवा पूर्व शरीरनामा नामकर्म के उदय होने पर नवीनकर्म का बन्ध होता है।
-जं. सं. 23-8-56/VI/ बी एल. पद्म, शुजालपुर भावात्रव किस गुण की विकारीपर्याय है ? शंका-भावास्रव आत्मा की किस गुण की किसप्रकार की विकारीपर्याय का नाम है ? उन गुणों में अंशअंश में शुद्धता आती है या नहीं? यदि आती है तो प्रतिपक्षी कौनसे कर्म का अभाव होने से आती है ?
समाधान-भावानव दो प्रकार का है ? साम्परायिक और ईर्यापथ । "सकषायाकषाययोः साम्परायिके. पर्यायथयोः ॥ ४ ॥ (मोक्षशास्त्र अध्याय ६, सूत्र ४ ) इसमें से साम्परायिकभावप्रासव के १ मिथ्यात्व, २ अविरति, ३ प्रमाद,४ कषाय, ५ योग, पांच भेद हैं।
"मिच्छत्ताविरविपमादजोगकोहावओऽथ विष्णेया।
पण पण पणवस तियचदु कमसोभेवा दु पुवस्स ॥२०॥" वृहद्रव्यसंग्रह इनमें से 'मिथ्यात्व' प्रात्मा के दर्शन श्रद्धान गुण को विकारीपर्याय है। 'अविरति' 'प्रमाद' 'कषाय' ये तीनों आत्मा के चारित्रगुण की विकारीपर्याय हैं । 'योग' आत्मा की विकारीद्रव्यपर्याय है। ईर्यापथआसव का भेद "योग" है । "दर्शन" ( श्रद्धान ) व "चारित्र" गुण में अंश-अंश शुद्धता आती है। दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकर्म के अभाव से शुद्धता पाती है।
-जं. सं. 6-6-57/VIII/ जे. स्वा. मं. कुचामन सिटी पुण्य के फल में अर्हन्त पद की प्राप्ति होती है, यह कथन त्रैकालिक सत्य है
शंका–'समयसार-वैभव' की भूमिका में पं० जगन्मोहनलालजी ने लिखा है-'पुण्णफला अरिहन्ताः' प्रवचनसार की इस गाथा में पुण्य के फल से अरिहन्त पद प्राप्त हुआ है, ऐसा समझना नितान्त भ्रम है। अरिहन्त वशा तो चार घातिया कर्मों के विनाश से प्राप्त होती है।" प्रश्न यह है अरिहन्त पद प्राप्त करने में क्या पुण्यकर्म सहकारी कारण नहीं है ?
समाधान-प्रवचनसार गाया ४५ में श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने 'पुण्णफला अरहंता' ऐसा लिखा है। इसी की टीका करते हुए श्री जयसेनाचार्य ने लिखा है
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