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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार ।
कायचेष्टा से संयम का छेद नहीं होना चाहिये था तथा अहंत भगवान की क्रिया मोक्ष की कारण नहीं होनी चाहिये थी, किन्तु श्री प्रवचनसार में भावशून्य मात्र कायचेष्टा से संयम का छेद तथा महंत भगवान की क्रिया को मोक्ष की कारणीभूत स्वीकार किया है। श्री पद्मनन्दि आचार्य भी पद्मनन्दि पविशतिका में कहते हैं।
विट्ट तुमम्मि जिणवर चम्ममएणच्छिणावि तं पुण्णं ।
जं जणइ पुरो केवलदसण णाणाइ गयणाइं ॥७५७ ॥ अर्थ हे जिनेन्द्र ! चर्ममय नेत्र से भी आपका दर्शन होने पर वह पुण्य प्राप्त होता है जो कि भविष्य में केवलदर्शन और केवलज्ञानरूप नेत्र को उत्पन्न करता है।
४५ दिन के बालक को माता जिनमंदिर में लेजाकर भगवान के दर्शन कराती है और उससमय से प्रतिदिन वह बालक मंदिरजी में भगवान के दर्शनार्थ लेजाया जाता है, किन्तु कई वर्ष तक उस बालक की वह क्रिया भावशून्य ही रहती है। क्या उस बालक का मंदिरजी में लेजाया जाना सर्वथा निरर्थक है? विद्वान इस पर विचार करें। यदि इस क्रिया को सर्वथा निरर्थक मान लिया जावेगा तो जैन समाज में जिनदर्शन की परम्परा उठ जावेगी। जिससे जैनधर्म का लोप हो जावेगा। आज जितने भी भावपूर्वक दर्शन करनेवाले व्यक्ति दृष्टिगोचर हो रहे हैं उन सबने सर्वप्रथम जिनदर्शन की क्रिया भावशून्य प्रारम्भ की थी। जिनमंदिर में जाने से तथा जिनेन्द्र के दर्शन करने से
प्रक्रिया भावपूर्वक होगई। यदि वे भावशून्यक्रिया को न करते तो उनको भावपूर्वक जिनेन्द्रदेव के दर्शन प्राप्त न होते । अतः 'भावशून्यक्रिया का कुछ भी फल नहीं होता, ऐसा एकान्त मानना उचित नहीं है।
दिगम्बरेतर समाज में शारीरिकक्रिया निरपेक्ष मात्र भावों से मोक्ष की प्राप्ति स्वीकार की है जिसका खण्डन श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने 'जग्गो ही मोक्ख मग्गो' अर्थात् 'नग्नता मोक्षमार्ग है' इन वाक्यों द्वारा किया है। उन्हीं श्री कुन्दकुन्द के नाम पर अध्यात्म की आड़ में एकान्तमिथ्यात्व का प्रचार उचित नहीं है।
-तं. ग. 12-3-64/IX/ स. कु. सेठी पुण्य की कथंचित् हेयता, कथंचित् उपादेयता; पुण्य मोक्षपद में भी सहायक है
शंका-सम्यग्दर्शन क्या बिना तत्त्वश्रद्धान के हो सकता है और अगर तत्त्वश्रद्धान से होता है तो जैसा तत्त्व है वैसा ही समझने से होता है या पहले तत्त्व को किसी प्रकार समझा जाय फिर और प्रकार जाने जैसे आस्रव तत्व को प्रथम अवस्था में उपादेय माने बाद में हेय; क्या यही क्रम परिपाटी है ?
समाधान-जो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तजीव ज्ञानावरणकर्म का विशेष क्षयोपशम न होने के कारण तत्त्वों को नहीं जान सकते, उनको भी सम्यग्दर्शन हो सकता है। श्री स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा भी है
जो ण वि जाणइ तच्चं सो जिणवयेण करेइ सहहणं ।
जं जिणवरेहिं भणियं तं सव्वमहं समिच्छामि ॥ ३२४॥ जो जीव अपने ज्ञानावरण के विशिष्ट क्षयोपशम बिना तथा विशिष्ट गुरुसंयोग बिना तत्त्वार्थ को नहीं जान सके हैं सो जिनवचन विर्षे ऐसे श्रद्धान करे है कि जिनेश्वरदेव ने जो तत्त्व कहा है, सो सर्व ही मैं भले प्रकार इष्ट करूं हूँ ऐसे भी श्रद्धावान होय हैं। ऐसे सामान्य श्रद्धातें भी आज्ञासम्यक्त्व कहा है।
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