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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
ही उपशम श्रेणी चढ़ सकते । श्रन्तिम तीन संहननवाले जीवों के सातवें गुणस्थान से आगे के गुणस्थान नहीं हो सकते । इसप्रकार जीव और पुद्गल में प्रदेश भेद होते हुए भी एकद्रव्य का दूसरे द्रव्य पर प्रभाव पड़ता है, किन्तु एकद्रव्य कभी भी पलट कर दूसरे द्रव्यरूप नहीं हो जाता यही द्रव्य की स्वतंत्रता है ।
- जै. ग. 25-4-63 / 1X / . पन्नालाल जैन
द्रव्य-तत्व
जीव : उपयोग
दर्शनोपयोग से अभिप्राय
शंका- दर्शनोपयोग का अभिप्राय उदाहरणरूप में बताने की कृपा कीजिए ।
समाधान -- खद्यस्थों के ( सम्यग्दष्टि या मिथ्यादृष्टि, कोई भी हो ) जब ज्ञान एक बाह्यपदार्थ का प्रवलम्बन छोड़कर जबतक दूसरे पदार्थ का अवग्रह न करे तबतक उसका उपयोग अपनी प्रात्मा में रहता हुआ दूसरे बाह्यपदार्थ को जानने के लिए जो प्रयत्न करता है, वह दर्शन है ।"
केवलदर्शन का स्वरूप व कार्य
शंका - अनन्त चतुष्टय में से ज्ञान, सुख एवं वीर्य तो समझ में आते हैं, किन्तु दर्शन का क्या कार्य है ? तथा केवलज्ञान और केवलदर्शन में क्या अन्तर रहता है ?
- पत्र 21-4-80 / ज. ला. जैन, भीण्डर
समाधान - अन्तरंग उद्योत केवलदर्शन है और बहिरंग पदार्थों को विषय करनेवाला प्रकाश केवलज्ञान है, ऐसा स्वीकार कर लेना चाहिये। दोनों उपयोगों की एकसाथ प्रवृत्ति मानने में विरोध भी नहीं आता है, क्योंकि उपयोग की क्रमवृत्ति कर्म का कार्य है और कर्म का अभाव हो जाने से उपयोगों की क्रमवृत्ति का भी अभाव हो जाता है ।
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१. दि० ३-८-७७ को एक पलोत्तर में पूज्य मुख्तार साहब श्री जवाहरलालजी को लिखते हैं कि! " मानाकि हम उत्तर की ओर स्थित पदार्थ को देख रहे थे । फिर दक्षिण की ओर स्थित पदार्थ को जानने की इच्छा हुई । तब चक्षु इन्द्रिय उत्तर में स्थित पदार्थ का ग्रहण छोड़ कर तथा दक्षिण की ओर स्थित पदार्थ के साथ पदार्थ का सन्निकर्ष प्रारम्भ करे, इसके बीच का जो काल है ( यह काल सैकण्ड था उसके भी अंशरूप है), जिस काल में कि चक्षुइन्द्रिय द्वारा बाह्यपदार्थ के साथ सन्निकर्ष नहीं है, वह दर्शनोपयोग का काल हैं। इस दर्शनोपयोग के काल में चक्षुइन्द्रिय का कोई व्यापार नहीं है ( चक्षुइन्द्रिय के द्वारा जानने का
प्रयत्नमाल है।" - घे० प्र० पा०
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