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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
प्रात्मा कथंचित् सर्वगत है शंका-आत्मा सर्वव्यापी किसप्रकार है ?
समाधान-आत्मा के प्रदेश यद्यपि लोकाकाश प्रमाण असंख्यात हैं तथापि ज्ञान की अपेक्षा सर्वव्यापी हैं, क्योंकि ज्ञान लोकालोक सर्वपदार्थों को जानता है। कहा भी है
आदा णाणपमाणं गाणं ऐयप्पयाणमुद्दिट्ट। पेयं लोयालोयं तम्हा णाण तु सव्वगयं ॥२३॥ प्रवचनसार ज्ञानप्रमाणमात्मानं ज्ञानं ज्ञेयप्रम विदः ।
लोकालोकं यतो ज्ञेयं ज्ञानं सर्वगतं ततः॥१॥१९॥ योगसार प्राभूत पृ० १२ जिनेन्द्र देव ने आत्मा को ज्ञान प्रमाण और ज्ञान को ज्ञेयप्रमाण कहा है। ज्ञेय चूकि लोकालोकरूप है अत: ज्ञान सर्गगत है। प्रात्मा ज्ञान प्रमाण होने से आत्मा भी सर्नगत है।
सिद्धो बोधमितिः स बोध उदितो ज्ञेयप्रमाणो भवेत । ज्ञेयं लोकमलोकमेव च वदन्त्यात्मेति सर्वस्थितः॥पग्रनन्दिपं० ८.५
अर्थ-सिद्धजीव अपने ज्ञान के प्रमाण हैं और वह ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है ज्ञेय भी लोक-अलोकस्वरूप हैं। इससे आत्मा सर्व व्यापक कहा जाता है। ( प्रदेश की अपेक्षा आत्मा सर्वव्यापक नहीं है)।
-नं.ग. 23-9-71/VII/ रो. ला. मित्तल
शुद्धनिश्चयनय से प्रात्मा को कुछ भी हेय-उपादेय नहीं शंका-अध्यात्मरहस्य ग्रंथ के ६५ वें श्लोक में कहा गया है कि 'परमशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा के लिये न कुछ हेय और न उपादेय है।' प्रश्न यह है-क्या उच्च श्रेणी का योगी अपनी प्रवृत्ति में हेय उपादेय बुद्धि नहीं रखता है ? क्या आहार लेते समय भी वह अभक्ष्य भक्ष्य में हेय उपादेय बुद्धि नहीं रखता?
समाधान-परमशुद्धनिश्चयनय की दृष्टि में आत्मा शुद्ध है, उसमें न राग-द्वेष है और न क्रिया है। अतः शुद्धात्मा के लिये न कुछ हेय है और न कुछ उपादेय, क्योंकि शुद्धात्मा ग्रहण नहीं करता है। जो ग्रहण करता है उसी के लिये ग्राह्य-अग्राह्य का विकल्प होता है। शुद्धनिश्चयनय की दृष्टि में आहार लेना ही सम्भव नहीं है अतः अभक्ष्य-भक्ष्य का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता।
"जीवपुद्गलसंयोगेनोत्पन्नाः मिथ्यात्वरागादिभावप्रत्यया अशुद्ध निश्चयेनाशुद्धोपादानरूपेण चेतना जीवसम्बद्धाः शुद्धनिश्चयेन शुद्धोपादानरूपेणाचेतनाः पौगलिकाः परमार्थतः पुनरेकांतेन न जीवरूपाः न च पुद्गलरूपाः सधाहरिद्रयोः संयोग परिणामवत् । वस्तुतस्तुसूक्ष्मशुद्ध निश्चयनयेन न सन्त्येव ।" समयसार पृ० १७५-१७६ ।
अर्थ-जीव और पुद्गल के संयोग (बंध ) से उत्पन्न होनेवाले मिथ्यात्व, रागादि भावप्रत्यय अशुद्धनिश्चयनय व अशुद्ध-उपादान की अपेक्षा जीवरूप हैं और शुद्धनिश्चयनय व शुद्ध उपादान की अपेक्षा मिथ्यात्व व रागादि अचेतन हैं पौद्गलिक हैं। परमार्थ एकान्त से न जोवरूप हैं और न पुद्गलरूप हैं, जैसे चुना-हल्दी के संयोग से उत्पन्न होनेवाला लालरंग न चूनारूप है न हल्दीरूप है। वस्तुतः सूक्ष्म-शुद्धनिश्चयनय (परम शुद्धनिश्चयनय ) की अपेक्षा से मिथ्यात्व, रागद्वेष हैं ही नहीं, क्योंकि परमशूद्धनिश्चयनय की रष्टि में सब द्रव्य अपने-अपने स्वभाव में ठहरे हुए शुद्ध हैं, बन्ध नहीं हैं ।
-ज. ग. 29-1-70/VII/ शास्वसभा, ग्रीनपार्क, देहली
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