________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ।
[ ९७९
अर्थ-जैसे वस्त्र का श्वेतभाव मैल के मिलने से लिप्त होता हुआ नष्ट हो जाता है, उसीप्रकार मिथ्यात्वरूपी मैल से व्याप्त होता हुआ ( लिप्त होता हुआ ) सम्यक्त्व वास्तव में नष्ट हो जाता है, ऐसा जानना चाहिये। जैसे वस्त्र का श्वेतभाव मैल के मिलने से लिप्त होता हआ नाश को प्राप्त होता है उसीप्रकार अज्ञानरूपी मैल से व्याप्त होता हुआ ज्ञान नष्ट हो जाता है, ऐसा जानना चाहिये । जैसे वस्त्र का श्वेतभाव मैल के मिलने से लिप्त होता हुआ नाश को प्राप्त होता है, उसीप्रकार कषायरूपी मैल से व्याप्त ( लिप्त ) होता हुआ चारित्र भी नष्ट हो जाता है, ऐसा जानना चाहिये ॥ १५७-१५९ ॥
(३) सम्मत्तपडिणिबद्ध मिच्छत्तं जिणवरेहिं परिकहियं ।
तस्सोदयेण जीवो, मिच्छादिट्ठिति णायब्वो ॥ १६१ ॥ णाणस्स पडिणिब अण्णाणं जिणवरेहि परिकहियं । तस्सोक्येण जीवो अण्णाणी होवि णायम्बो ॥ १६२॥ चारित्तपडिणिबद्ध कसायं जिणवरेहि परिकहियं ।
तस्सोवयेण जीवो अचरित्तो होवि णायवो ॥ १६३ ॥ [समयसार] अर्थ-सम्यक्त्व को रोकनेवाला मिथ्यात्व है। ऐसा सर्वज्ञ ने कहा है, उसके उदय से जीव मिथ्याष्टि होता है ऐसा जानना चाहिये । ज्ञान को रोकने वाला अज्ञान है ऐसा सर्वज्ञ ने कहा है, उसके उदय से जीव अज्ञानी होता है ऐसा जानना चाहिये । चारित्र को रोकने वाला कषाय ( क्रोध, मान, माया, लोभ ) है, ऐसा सर्वज्ञ ने कहा है, उसके उदय से यह जीव अचारित्रवान होता है ऐसा जानना चाहिये ॥ १६१-१६२-१६३ ॥
(४) जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहि ।
रंगिज्जदि अण्णेहिं दु सो रत्तादीहिं दम्वेहि ॥ २७८ ॥ एवं गाणी सुद्धो न सयं परिणमइ रायमाई हिं।
राइज्जवि अण्णेहि दु सो रागादीहि बोसेहिं ॥ २७९ ॥ [समयसार] अर्थ- जैसे स्फटिकमणि शुद्ध होने से रागादिरूप से ( ललाईआदिरूप से ) अपने आप नहीं परिणमती, परन्तु अन्य रक्तादिद्रव्यों से वह लाल-आदि किया जाता है इसीप्रकार प्रात्मा शुद्ध होने से रागादिरूप अपने प्राप नहीं परिणमता, अन्य रागादिदोषों से वह रागी आदि किया जाता है ।। २७८-२७९ ॥
(५) जह फलिहमणि विसुद्धो परवब्वजुदो हवेइ अण्णं सो।।
तह रागादि-विजुत्तो जीवो हवदि हु अणण्णविहो ॥५१॥ [मोक्षपाहुङ] अर्थ-जैसे स्फटिकमणि विशुद्ध है वह परद्रव्य के संयोग से प्रन्यरूप हो जाती है, उसीप्रकार जीव भी रागादि के संयोग से अन्य-अन्य प्रकार होता है। [ स्त्रीभियोगे रागवान् भवति, शत्रुभिर्योग द्वेषवान् भवति, पुत्रादिभिर्योगे मोहवान् भवतीति तात्पर्यार्थः ] स्त्री के संयोग से रागी, शत्रु के संयोग से द्वेषी और पुत्र के संयोग से मोही होता है, यह तात्पर्य है । [ संस्कृत टीका ]
(६) चेया उ पयडी-अ, उप्पज्जइ विणस्सइ ।
पयडीवि चेयय8 उप्पज्जइ विणस्सइ ॥ ३१२॥ एवं बंधो उ वुण्हं वि अण्णोण्णप्पच्चया हवे । अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायए ॥ ३१३ ॥ (समयसार)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org