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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
उपयोग (ज्ञान) उपयोग में है, क्रोधादि ( रागद्वेष ) उपयोग नहीं है । क्रोध क्रोध में है, उपयोग में क्रोध नहीं है ।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि रागादि में ज्ञानांश नहीं हैं ।
"यथा स्त्रीपुरुषाभ्यां समुत्पन्नः पुत्रो विवक्षावशेन देवदत्तायाः पुत्रोयंकेचन वदंति देवदत्तस्य पुत्रोऽयमितिकेचनं वदतीतिदोषी - नास्ति । तथा जीवपुद्गलसंयोगेनोत्पन्नाः मिथ्यात्वरागादिभावप्रत्यया अशुद्ध निश्चयेनाशुद्धोपावानरूपेण चेतना जीवसंबद्धाः, शुद्ध निश्चयेन शुद्धोपादानरूपेणा चेतनाः पौद्गलिकाः परमार्थतः । पुनरेकांतेन न जीवरूपाः न च पुद्गलरूपाः सुधाहरिद्रयोः सयोगपरिणामवत् । वस्तुतस्तु सूक्ष्मशुद्ध निश्चयनयेन न संत्येवाज्ञानोद्भवाः कल्पिता इति । एतावता किमुक्तं भवति ? ये केचन वदत्येकांतेन रागादयो जीवसंबंधिनः पुद्गल संबंधिनो वा तदुभयमपि वचनं मिथ्या । कस्मादिति चेत् पूर्वोक्तस्त्रीपुरुषदृष्टांतेन संयोगोद्भवत्वात् । " ( समयसार पृ० १०१ )
जैसे पुत्र जो उत्पन्न होता है वह स्त्री धीर पुरुष दोनों के संयोग से होता है । अतः विवक्षावश से उसकी माता की अपेक्षा से देवदत्ता का यह पुत्र है ऐसा कोई कहते हैं, दूसरे पिता की अपेक्षा यह देवदत्त का पुत्र है ऐसा कहते हैं । परन्तु इन कथनों में कोई दोष नहीं है, क्योंकि विवक्षाभेद से दोनों ही ठीक हैं । वैसे ही जीव और पुद्गल इन दोनों के संयोग से उत्पन्न होनेवाले मिथ्यात्वरागादिरूप जो भावप्रत्यय हैं वे प्रशुद्ध उपादानरूप अशुद्धनिश्चयनय से चेतनरूप हैं, क्योंकि जीव से सम्बद्ध हैं, किन्तु शुद्धउपादानरूप शुद्ध निश्चयनय से ये सभी अचेतन हैं, क्योंकि पौद्गलिककर्मोदय से हुए हैं । किन्तु वस्तुस्थिति में ये सभी न तो एकांत से जीवरूप ही हैं और न पुद्गल रूप ही हैं । किन्तु चूना और हल्दी के संयोग से उत्पन्न हुई कुंकुम के समान ये रागादिप्रत्यय भी जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न होने वाले संयोगीभाव हैं । सूक्ष्मरूप शुद्धनिश्चयनय की दृष्टि में इनका अस्तित्व ही नहीं है, क्योंकि प्रज्ञान द्वारा उत्पन्न हुए कल्पित हैं । इस सबका सार यह है जो एकान्त से रागादि को मात्र जीवसम्बन्धी कहते हैं या मात्र पुद्गलसम्बन्धी कहते हैं उन दोनों का कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ये जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न हुए हैं, जैसा स्त्री पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुए पुत्र के दृष्टांत द्वारा बताया जा चुका है ।
. ग. 2-12-71 / VIII / रो. ला. मित्तल कर्मोदय व विभाव परिणामों में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है।
शंका - जीव का रागादि भावरूप परिणमन और पुद्गल का ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमन क्या एक दूसरे के निरपेक्ष होता है ? क्या रागादिभावों के लिये कर्मोदय को निमित्त मानना मिथ्यात्व है ?
समाधान - " यथा बलीवदंपरिभ्रमणापादितारगर्तभ्रान्ति घटियन्त्रभ्रांतिजनिकां बलीवदंपरिभ्रमणाभवे चारगतंभ्रान्त्यभावाद् घटियन्त्रस्रान्तिनिवृत्ति च प्रत्यक्षत उपलभ्य सामान्यतोदृष्टावनुमानाद् बलीवर्दतुल्यकर्मोदयापादितां चतुगंत्य रगतं भ्रान्ति शरीरमानस विविधवेदनाघटीयन्त्र भ्रान्तिजनिकां प्रत्यक्षत उपलभ्य ज्ञानदर्शनचारित्राग्निर्दग्धस्य कर्मण उदयाभावे चतुर्गत्यरगर्त भ्रान्त्यभावात् संसारघटीयन्त्रस्त्रान्तिनिवृत्या भवितव्यनुमीयते ।" - राजवार्तिक; प्रारंभिका, वा० ९ पृ० २
जैसे घटीयन्त्र का घूमना उसके धुरे के घूमने से होता है और घुरे का घूमना उसमें जुते हुए बैल के घूमने पर होता । यदि बैल का घूमना बन्द हो जाय तो घुरे का घूमना रुक जाता है और धुरे के रुक जाने पर घटीयन्त्र का घूमना बन्द हो जाता है । उसीप्रकार कर्मोदयरूप बैल के चलने पर चारगतिरूपी धुरे का चक्र चलता है और चतुर्गति घुरा हो अनेक प्रकार की शारीरिक-मानसिकादि वेदनाओंरूपी घटीयन्त्र को घुमाता रहता है । सम्यग्दर्शन
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