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व्यक्तित्व और कृतित्व
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स्वयं रागादिरूप नहीं परिणमती, परन्तु अन्य रागादिदोषों ( द्रव्यकर्म ) से रागी किया जाता है । इस गाथा की टीका में श्री अमृतचन्द्रसूरि ने लिखा है - वास्तव में अकेला आत्मा, स्वयं परिणमन स्वभाववाला होने पर भी अपने शुद्धस्वभाव के कारण रागादि का निमित्तत्त्व न होने से अपने श्राप ही रागादिरूप नहीं परिणमता, परन्तु द्रव्यकर्म जो रागादि के निमित्त होते हैं, ऐसे परद्रव्य के द्वारा ही आत्मा रागादिरूप परिणमित किया जाता है । गाथा २८३२८५ की टीका में भी लिखा है कि आत्मा स्वतः रागादि का प्रकारक ही है ।
इन उपर्युक्त आगमप्रमारणों से सिद्ध है कि जीव स्वतन्त्र होकर अर्थात् स्वतन्त्रावस्था में क्रोधादिकषाय करने में असमर्थ है । जीव परतन्त्र होकर क्रोधादिकषाय को करता है । श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है- मोहनीयोदयानुवृत्तिवशाद्रज्यमानोपयोगः ( पंचास्तिकाय गाथा १५६ टीका ); समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म ( समयसार कलश मं० ११० ) श्री पं० जयचन्दजी ने भी समयसार गाथा १३० व १६६ आदि के भावार्थ में व अन्य अनेक स्थलों पर कहा है कि चारित्रमोह के उदय की बलवत्ता से रागादि होते हैं ।
समाधान- - (क) यदि जीव के कषायभाव को निष्कारण माना जावेगा तो ये कषायभाव 'नित्य' हो जायेंगे, क्योंकि जिसका कोई कारण (हेतु) नहीं होता और 'सत्' रूप होता है वह 'नित्य' होता है ( आप्तपरीक्षा पृ० ४ देहली से प्रकाशित ) । जीव के क्रोधादिकषायभाव अनित्य हैं, विनाशीक हैं, सदा स्थित रहने वाले नहीं हैं अतः
कार्य हैं । जो कार्य होता है उसका कारण अवश्य होता है । जैसे अज्ञानादि भी कार्य हैं और उनका कारण ज्ञानावरणादिकर्म, उसीप्रकार क्रोधादिकषायभाव का भी कारण अवश्य होना चाहिये और इनका कारण कषायकर्म अर्थात् चारित्रमोहनीय कर्म है । ( आप्तपरीक्षा पृ० २४७ ) । जो जिसका कारण होता है, उस कारण का उस कार्य के साथ अन्वयव्यतिरेक श्रवश्य होता है । श्रन्वयव्यतिरेक के द्वारा ही कार्यकारणभाव सुप्रतीत होता है । ( आप्तपरीक्षा पृ० ४०-४१ ) जहाँ-जहाँ चारित्रमोह का उदय है वहाँ-वहाँ कषायभाव अवश्य है जैसे सकषाय जीव । जहाँजहाँ कषायभाव नहीं हैं वहाँ-वहाँ चारित्रमोह का उदय भी नहीं है जैसे प्रकषायी जीव । जिससमय क्रोधरूपी चारित्रमोह का उदय है उस समय जीव के कषायरूप भाव अवश्य होते हैं । जिससमय मान का उदय है उससमय जीव में मानकषायरूप भाव प्रवश्य होते हैं । इसप्रकार अन्य कषायों के विषय में भी जान लेना चाहिये । क्रोधकषायभाव का कोषरूपी चारित्रमोहनीयकर्म के उदय के साथ कार्यकारण-सम्बन्ध न हो तो मान के उदय में भी अथवा चारित्रमोह के अनुदय में भी क्रोध कषायभाव की उत्पत्ति का प्रसङ्ग श्रा जावेगा । इस सम्बन्ध में विशेष के लिये समयसार गाथा ६१-६८ तक तथा गाथा ७५ पर श्री अमृतचन्द्राचार्य की संस्कृत टीका देखनी चाहिए ।
भावबन्ध ( कषायभाव ) द्रव्यबन्ध ( चारित्रमोह ) के बिना नहीं होता अन्यथा मुक्तजीवों के भी भावबंध का प्रसंग ा जावेगा ( आप्तपरीक्षा पृ० ५ )
श्री समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय आदि ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर यह लिखा है कि कषायभाव कर्मोदय के कारण ही होते हैं निष्कारण नहीं होते हैं। विशेष के लिये श्रीमान् पं० शिखरचन्दजी लिखित 'समाधान चन्द्रिका' देखनी चाहिये ।
समाधान- - ( ख ) - यद्यपि इस प्रश्न का समाधान उपर्युक्त समाधानों से हो जाता है, समाधान ( अ ) में यह सिद्ध किया जा चुका है कि क्रोधादिकषायभाव पारिणामिक नहीं हैं, समाधान ( आ ) व (क) में यह सिद्ध किया जा चुका है कि आत्मा स्वतंत्र होकर इन भावों को नहीं करता और ये भाव निष्कारण भी नहीं हैं, किन्तु इन भावों का कर्मोदय कारण है । जो भाव कर्मोदय के निमित्त से होते हैं उनको प्रदयिक कहते हैं। पंचास्तिकाय गाथा ६० को टीका में कहा भी है-कर्मों का फलदान समर्थ से प्रगट होना 'उदय' है । उस उदय से जो युक्त हो
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