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३६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यं स्मृति ग्रन्थ
मानवीयता का संदेश देता है, यह संदेश है जीवनकी क्रांतिमुखी मर्यादाका, आत्मोत्सर्ग पूर्ण निष्ठाका और पीड़ित मानवताके प्रति गहरी करुणाका । ऐसे साहित्यकी रचनाका जो आचरिक और नैतिक मूल्यों पर आधारित हो, जीवनमें भी वे न्यायके प्रति संघर्षरत रहे ।
दुर्लभ ग्रन्थों का प्रणयन, भारतीय ज्ञानपीठ जैसी संस्थाओं की संस्थापना उनकी जीवन्त जीवटताकी प्रतीक हैं । साहित्यका दीपक प्रज्वलित कर प्राचीनतम ग्रन्थोंका जीर्णोद्धार, ज्ञानोदयके माध्यम से जनसामान्यसे उनका परिचय कराना कुछ ऐसे विशिष्ट योजनाबद्ध कार्यक्रम रहे जो आज तक भी उतने ही प्रांसगिक हैं । जैन जागरण के अग्रदूत बनकर डॉ० महेन्द्रने सचमुच नये युगका सूत्रपात किया । जैन साहित्यके मध्य स्तम्भ डॉ० महेन्द्रको कृतज्ञता पूर्वक स्मरण ।
हमारी आस्था के सुमेरु न्यायाचार्य
• प्रतिष्ठाचार्य पं० विमलकुमार जैन सोरया, टीकमगढ़
पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी महाराजके बाद न्याय शास्त्रका महान् अध्येता कोई विद्वान् हुआ है तो वह हैं पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य हैं जिन्होंने न्यायशास्त्रका तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त कर न्यायशास्त्रोंकी बहुमुखी टीका कर अपनी श्रेष्ठ प्रतिभाका परिचय दिया । न्यायशास्त्र के अध्ययनका द्वार आपके द्वारा अनुवादित ग्रन्थोंके बाद ही खुला है न्यायशास्त्र जैसे नीरस दुरूह ग्रन्थोंकी सरस और सरलतम टीका कर नई परम्परामें अध्येताओंको अभिरुचि देनेका प्रथमतः श्रेय आपको देनेका कारण बनी है। जैन संस्कृतिके अभ्युत्थानमें पूज्य 'वर्णीजीको दायां और महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यजीको बांया हाथ कहा जाए तो अत्युक्ति नहीं है । । भारतीय ज्ञानपीठ जैसी उन्नत आगम प्रकाशन संस्थाकी संवृद्धि और वर्णमाला गत श्रेय महेन्द्रकुमारजीको ही है । जैनागमके जो भी शास्त्र दुरूह, दिशामें परोक्षवत थे । ऐसे महान् ग्रन्थों की टीका करनेका प्रशंसनीय श्रेय श्री महेन्द्रकुमारजीको ही है ।
लोकोत्तरता प्रदान करनेका क्लिष्ट अथवा पठन-पाठनकी
महान् विद्वानोंकी यह भावनाएँ आदरणीय पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यकी विलक्षण प्रतिभा, अगाध पाण्डित्य और बहुमुखी विद्वत्तापूर्ण प्रतिभाकी द्योतक हैं । आपने अपने ४८ वर्षीय जीवनकालमें जितना लोकोतर कार्य किया है। कई वर्षोंमें अनेकों विद्वान् ऐसा कार्यकर सकने में समर्थ नहीं हो पाते । बीसवीं शताब्दीका यह प्रथम विद्वान है जिनका अभिनन्दन राष्ट्र स्तरपर सर्वप्रथम होना चाहिये था । लेकिन प्रसन्नता की बात है कि जैन समाजने अपने इस महान् विद्वान्की सम्मान स्मृतिमे इस ग्रन्थका प्रकाशन कर कृतज्ञताका अ चढ़ाया है ।
शत् शत् नमन
• डॉ० राजमति दिवाकर, सागर
प्रतिभा नवनवोन्मेष शालिनी होती है जो समयके पार माप लेती है अपने यश को; ऐसे ही यश:काय न्यायतीर्थं, न्याय दिवाकर, न्यायाचार्य महेन्द्रकुमारजी अपनी विशिष्ट प्रतिभाके धनी थे जिन्होंने ४८ वर्ष जैनधर्म एवं दर्शनकी वैज्ञानिक दृष्टि
कम आयु में अपने समयसे कई गुना आगेकी जमीं पार कर ली थी । को सहजता और सरल ढंगसे सम्पूर्ण मानव समाजके बीच प्रस्तुत कार्यं है ।
करना अपने आपमें बहुत उल्लेखनीय
निश्चय ही प्रो० डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य अपने प्रदेयसे जैनधर्म एवं दर्शनके असाधारण हस्ताक्षर हैं। ऐसे जैनदर्शनके अपूर्वं ज्ञाताको मेरा शत् शत् नमन ।
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