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१/ संस्मरण : आदराञ्जलि: ३१
श्रद्धा सुमन • डॉ० दयाचन्द्र साहित्याचार्य, सागर
डॉ० श्री महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य जैनदर्शनके प्रकाण्ड विद्वान्, लेखक, प्रवचनकर्ता और प्रतिभाशाली प्रवीण प्राध्यापक थे। आपने स्वकीय कुशाग्र बुद्धिसे न्यायशास्त्रकी ग्रन्थियोंको सरलतासे विकसित कर दिया। अपनी विलक्षण शिक्षण कलासे छात्रोंके हृदयोंको प्रफुल्लित कर दिया था। आपने गृहस्थ जीवनकी कठिनाईयोंको साहस और ज्ञानबलसे पार किया। आपकी साहित्यिक, सामाजिक और शैक्षणिक सेवाएँ अनुपम एवं उल्लेखनीयके साथ ही अनुकरणीय हैं।
हम आपके प्रति कृतज्ञतापूर्वक श्रद्धासुमन समर्पित करते हैं । मेरी श्रद्धा के दर्पण • सि० पं० जम्बूप्रसाद जैन शास्त्री, मड़ावरा
आदरणीय पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य हमारे साथी समकालीन विद्वान थे। यद्यपि वह मुझसे उम्रमें ४/५ वर्ष ज्येष्ठ थे । उम्रमें ही नहीं ज्ञानके क्षयोपशममें भी उन्नत थे । पूतके लक्षण पालने में दिखाई देते हैं कि उक्ति श्री महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य जीके जीवनमें परिलक्षित होती है। आरम्भिक बालापनसे ही वह प्रतिभाशाली रहे। ज्ञानका इतना अच्छा क्षयोपशम था कि जिस वस्तु या प्रकरणको उन्होंने एक बार देख लिया जीवन भर उनके मन-मस्तिष्कमें स्मृत रूप बना रहता था। उनके जीवनके ऐसे अनेकों प्रसंग हैं जो उनकी विलक्षण प्रतिभाके प्रतीक स्मृत रूप रह गए। उन्होंने जो भी लेखन, सम्पादनका कार्य किया वह इतनी उन्नत एवं लोकोत्तर रूपमें हुआ जिससे आगे आनेवाली लाखों पीढ़ियाँ स्मृत कर कृतज्ञताका अर्घ चढ़ाती रहेंगी। मैंने आदरणीय न्यायाचार्य जीके प्रायः सभी टीका ग्रन्थोंका अध्ययन किया। पढ़ते समय मुझे अपार प्रसन्नता होती थी जब इन्होंने इसकी टोकापर अक्षरशः आचार्योके प्रतिपाद्य विषयको सुस्पष्ट रूपमें भाषान्तर कर अपनी विशेष व्याख्यासे उसे साधित किया। यह उनके विलक्षण अपार ज्ञानकी क्षमता का प्रतीक है।
मैं महान आत्माको अपनी श्रद्धाञ्जलि समर्पित करता हूँ। न्यायशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान् • पं० पूर्णचन्द्र जैन शास्त्री
डॉ० पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य न्यायशास्त्रके प्रकाण्ड पण्डित थे। उनके द्वारा भारतीय न्याय विद्या-विधाको एक नवीन दिशा प्रदान को गई। जैन-दर्शनमें समुपलब्ध जैन-न्यायशास्त्रके समस्त ग्रन्थोंका पारायण कर उनके सम्पादन एवं संशोधनकी अनठी प्रक्रिया, हिन्दी भाषामें "जैन-दर्शन" नामक ग्रंथकी रचना कर प्रारम्भ की गई थी। संस्कृत एवं प्राकृतसे अनभिज्ञ न्यायशास्त्रके जिज्ञासुओंका इस महान ग्रंथ के माध्यमसे महान उपकार किया है। उनकी अमरकृति "जैनदर्शन" नामक ग्रंथ "गागरमें सागर" की उक्तिको चरितार्थ करता है।
पं० जीके प्रथम दर्शन मैंने बनारस हिन्दू वि० वि० में बौद्धदर्शन "विभागके अध्यक्षके रूपमें किए थे । मैं सन् १९५८ से १९६० तक बनारस हिन्दू वि० वि० का स्नातक छात्र रहा हूँ। पं० जी की सौम्य छविमें आत्मीयता एवं स्नेहशीलताका अपूर्व सम्मिश्रण परिलक्षित होता था। दर्शक अपरिचित छोटे-बड़े व्यक्तिको उनकी स्निग्ध-दृष्टि सहज ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेती थी।
उनके श्री चरणोंमें मैं अपनी विनम्र श्रद्धांजलि प्रस्तुत करता हुआ अपनेको गौरवान्वित मानला हूँ।
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