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________________ कहानी अमृत दर्शन " चक्रवर्ती होकर भी विरक्त । असंभव बात है । अनेक नवयौवना महारानियों और विपुल सुखसामग्रीका भोक्ता उदासीन, कल्पना की बात है। वैभव और आत्मदर्शन तीन और छहकी तरह विरोधी हैं ।" "नहीं, बन्धु, असंभव कुछ नहीं है और न कल्पना ही है । वैराग्य और उदासीनता अन्तरकी परिणति है, विभूति और वैभव बाह्य पदार्थ हैं। मात्र दृष्टि फेरनेसे नकशा ही बदल जाता है ।" सोमदत्त और यज्ञदत्त दो द्विजकुमार आपसमें बतया रहे थे। दोनोंने निश्चय किया कि यदि सचमुच भरतको आत्मदृष्टि प्राप्त है तो यह विद्या उनसे सीखनी चाहिये । पुराने जमाने में अध्यात्मविद्या क्षत्रियों के पास ही रही है, यह सुना जाता है । दोनों महाराज भरतके दरबार में पहुँचे । सोमदत्त - महाराज, सुना है कि आपको आत्मदर्शन हो गया है । छहखंडके अखण्ड साम्राज्यको सम्हालते हुए भी आत्मदर्शन ? कुछ समझ में नहीं आता । यों भाटों और चारणोंके द्वारा अन्य विभूतियोंकी तरह एक यह भी शोभावर्णन हो तो हमें कुछ कहना क्रियाओंमें लगाते हैं और सतत धर्मकी आराधना करते आप हमें वह उपाय बतावें जिससे आपको आत्मदृष्टि नहीं है । हम अपना चौबीसों घंटा अग्निहोत्र आदि आत्माके दर्शन नहीं हो सके । हैं पर हमें अभी तक 雪女 प्राप्त हुई है । महाराज भरत मुस्कुराये। उनने कहा - विप्रकुमार, मुझे इस समय कुछ आवश्यक राजकाज है । आप लोग तबतक हमारे राजकोश और वैभवका निरीक्षण करके वापिस आइए फिर शान्तिसे आत्मचर्चा करेंगे । हम आपको एक-एक अमृतपात्र देते हैं इसे हथेलीपर रखकर ही आप कटक - निरीक्षणके लिए जायँगे । ध्यान रहे, इसकी एक बूंद भी न छलक पावे, अन्यथा राजदंड भोगना होगा । दोनों विप्रकुमार दरवानके साथ हथेलीपर अमृतपात्र रखे हुए कटकमें गये । दरवान ने एक-एक करके राजकोश, अश्वशाला, गजशाला, सेनानिवास, रानियोंके अन्तःपुर आदि दिखाये । दो घंटे में समस्त कटक घूमकर विप्रकुमार वापिस आये । महाराज भरत विचारमग्न थे। आते हो विप्रकुमारोंसे पूछा- क्यों भाई, कटक देख आये ? अन्तःपुर गए थे ? कैसा लगा ? द्विजकुमार सिटपिटाये और बोले – महाराज, शरीरसे घूमनेकी क्रिया तो अवश्य हुई पर सिवाय इस अमृतपत्रके हमने कुछ नहीं देखा । हमें इसके छलकनेकी चिन्ता प्रतिक्षण लगी थी । दरवानके शब्द कानों तक जाते थे, पाकशालामें पकवानोंकी सुगन्धित नाक तक आई थी, प्यास लगनेपर सुन्दर पानक भी पिया था, अन्तःपुरकी सुकोमल शय्याओंपर भी बैठे थे और इन आँखोंने सब कुछ देखा पर इन्द्रियाँ तो सुनने, सूंघने, चखने और छूनेवाली नहीं हैं, हमारा मन और आत्मा तो इस अमृतकी ओर था । यह चिन्ता थी कि कहीं इसकी एक भी बूंद न छलक जाय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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