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३६४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ भावनासे चित्तको भावित करनेका उपदेश दिया गया है। इन्हें अनुप्रेक्षा संज्ञा भी इसीलिये दी गई है कि इनका बार-बार चिन्तन किया जाय । अनित्य भावनामें वही विचार तो हैं जो बुद्धने कहे थे कि-जगत् क्षणभंगुर है, अशचि है, स्वप्नवत है, माया है, मिथ्या है आदि । इसी तरह स्त्रीसे विरक्तिके लिये उसमें 'नागिन, सर्पिणी, नरककी खान, विषबेल' आदि की भावना करते हैं, पर इससे वह नागिन या सर्पिणी तो नहीं बन जाती या नागिन और सर्पिणी ती नहीं है। जैसे इस भावनाको तत्त्वज्ञानका रूप देकर वस्तुविपर्यास नहीं किया ज ता, उसी कुन्दकुन्दको अध्यात्म भावनाको हमें भावनाके रूप में हो देखना चाहिये, तत्त्वज्ञानके रूपमें नहीं। उनके तत्त्वज्ञानका ठोस निरूपण यदि प्रवचनसार और पंचास्तिकाय आदिम देखनेको मिलता है तो आत्मशोधनको प्रक्रिया समयसारमें ।
निश्चय और व्यवहारनयोंका वर्णन वस्तु तत्त्वके स्वरूपके निरूपणसे उतना सम्बन्ध नहीं रखता जितना हेयोपादेय विवेचनसे । 'स्त्री किन-किन निमित्त और उपादानोंसे उत्पन्न हई है' यह वर्णन अध्यात्म भावनाओं में नहीं मिलता, किन्तु 'स्त्रीको हम किस रूपमें देखें जिससे विषय विरक्ति हो, यह प्रक्रिया उसमें बताई जाती है । अतः यह विवेक करने की पूरी-पूरी आवश्यकता है कि कहाँ वस्तु तत्त्वका निरूपण है और कहाँ भावनात्मक वर्णन है। मझे यह स्पष्ट करने में कोई संकोच नहीं है कि कभी-कभी असत्य भावनाओंसे भी सत्यकी प्राप्तिका मार्ग अपनाया जाता है। जैसे कि स्त्रीको नागिन और सर्पिणी समझकर उससे विरक्ति करानेका । अन्ततः भावना, भावना है, उसका लक्ष्य वैज्ञानिक वस्तु तत्त्वके निरूपणका नहीं है, किन्तु है अपने लक्ष्यकी प्राप्तिका जबकि तत्त्वज्ञानके निरूपण की दिशा वस्तुतत्त्वके विश्लेषण पूर्वक वर्णन की होती है । उसे अमुक लक्ष्य बने या बिगड़े यह चिन्ता नहीं होती । अतः हमें आचार्योंकी विभिन्न नयदृष्टियोंका यथावत परिज्ञान करके तथा एक आचार्यको भी विभिन्न प्रकरणोंमें क्या विवक्षा है यह सम्यक् प्रतीति करके ही सर्वनयममह साध्य अनेकान्त तीर्थकी व्याख्यामें प्रवत्त होना चाहिए। एक नय यदि नयान्तरके अभिप्रायका तिरस्कार या निराकरण है तो वह सुनय नहीं रहता दुनंय बनकर अनेकान्तका विघातक हो जाता है । भूतबलि, पुष्पदन्त, उमास्वामी, समन्तभद्र और अकलङ्कदेव आदि आचार्योंने जो जैन-दर्शनका मुनिवादी पायेदार निर्बाध तथा सुदृढ़ भूमिका निरूपण किया है वह यों ही 'व्यवहार' कहकर नहीं उड़ाया जा सकता। कोई भी धर्म अपने 'तत्त्वज्ञान' और 'दर्शन' के बिना केवल नैतिक नियमोंके सिवाय और क्या रह जाता है । ईसाईधर्म और इस्लामधर्म अपने 'दर्शन' के बिना आज परीक्षा प्रधानी मानवको अपनी ओर नहीं खींच
। जैन-दर्शनने प्रमेयको अनेकान्त रूपता, उसके दर्शनको 'अनेकान्त-दर्शन' और उसके कथनकी पद्धति का 'स्याद्वाद भाषा' का जो रूप देकर आज तक भी 'जीवितदर्शन' का नाम पाया है उसे 'व्यवहार' के गड्ढे में फेंकनेसे तीर्थ और शासन की सेवा नहीं होगी। जैन-दर्शन तो वस्तु व्यवस्थाके मल रूपमें ही लिखता है कि
"स्वपरात्मोपादानापोहनापाद्यत्वं हि वस्तुनो वस्तुत्वम् ।" अर्थात् स्वोपादान यानी स्वास्तित्वके साथ ही साथ पर की अपेक्षा नास्तित्व भी वस्तुके लिये आवश्यक है। यह अस्ति और नास्ति अनेकान्त दर्शनका क ख है, जिसकी उपेक्षा वस्तु स्वरूपकी विघातक होगी।
सम्यक् नियतिवादके समर्थनमें उपयोग करना जैनीनयदृष्टिको गहराईसे न समझनेका ही परिणाम है। आचार्य अमृतचन्द्रने ठीक ही कहा कि-जिनेन्द्रदेव द्वारा प्ररूपित नयचक्रका समझना अत्यन्त कठिन है। यह दूधारी तलवार है। इसे बिना समझे चलानेवाला विनाशकी ओर ही जाता है। आचार्य कुन्दकुन्दने
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