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निश्चयनय सर्वज्ञता और अध्यात्म भावना
निश्चयनयकी दृष्टिसे सर्वज्ञताका पर्यवसान आत्मज्ञतामें होता है, वह प्रतिपादन आ० कुन्दकुन्दने नियमसार ( गा० १५८ ) में किया है । उसका विवेचन मैंने अपने 'जैन-दर्शन' ग्रन्थमें किया है । उस सम्बन्धमें कुछ विचारणीय मुद्दे इस प्रकार हैं
निश्चयनयकी दृष्टिसे जो पर्यवसानका आत्मज्ञतामें किया गया है उस सम्बन्धमें यह विचार भी आवश्यक है कि निश्चयनयका वर्णन स्वाश्रित होता है। निराकार यानी मात्र चैतन्य जब तक स्वीकार रहता है तब तक वह दर्शन है और जब वह साकार ज्ञान अर्थात् ज्ञेयाकार बनता है तब वह ज्ञान कहलाता है। अब प्रश्न यह है कि निश्चयनयकी दृष्टिमें ज्ञान स्वसे भिन्न किसी पर पदार्थको जानता है क्या? और यदि जानता है तो उसका यह परका जानना क्या पराश्रित कहा जाकर व्यवहारकी सीमामें नहीं आयगा ? इस प्रश्नके उत्तरमें अपनी दार्शनिक प्रक्रियासे ऊपर उठकर आ० कुन्दकुन्दकी दृष्टिसे ही विचार करना होगा । जहाँ कहीं थोड़ा भी पर पदार्थका आश्रय आया कि वह स्थिति निश्चनययकी सीमासे बाहर हो जाती है। समय प्राभूतरे में ही ज्ञान, दर्शन और चारित्रके गुणभेदको भी व्यवहारनयमें ही डाल दिया है
"ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्म चरित्तदंसणं गाणं ।
णविणांणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो ॥" अर्थात् चारित्र, दर्शन और ज्ञानका उपदेश व्यवहारनयसे है । निश्चयनयसे न ज्ञान है, न चारित्र। और न दर्शन ही है, यह तो शुद्ध ज्ञायक है।
जहाँ तक द्रव्यके परिणमनकी बात है, वह एक द्रव्यमें एक समयमें एक ही होता है। वह भी उसके अपने निज उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक मल स्वभावके कारण । द्रव्य चाहे शद्ध या अशुद्ध इस परिणामी स्वभावके कारण वह प्रतिक्षण पूर्वपर्यायको छोड़कर नई पर्यायको धारण करता हुआ अतीतसे वर्तमान होता हुआ आगे बढ़ता चला जा रहा है । आत्मद्रव्य एक अखण्ड द्रव्य है । वह भी इसी ध्रुव नियमके अनुसार प्रतिक्षण परिणामी है । उसके इस एक वर्तमानकालीन परिणमनको ज्ञान, दर्शन, सुख और चारित्र आदि अनेक गुणमुखोंसे देखा जाता है । समस्त गुणोंमें एक चैतन्य जाग्रत् रहता है । वही एक चैतन्यज्योति सभी गुणोंमें प्रकाशमान है - कुन्दकुन्द उसी ज्योतिको 'शुद्ध ज्ञायक' शब्द से कहते है। ज्ञान और दर्शनमें भी यही ज्ञायकज्योति प्रवह मान है । जब यह ज्योति स्व से भिन्न किसी ज्ञेयको प्रकाशित करती है तब ज्ञान कही जाती है और जब मात्र स्वको प्रकाशित करती है तब दर्शन कहलाती है। यानी इस ज्योतिमें 'ज्ञान' संज्ञा परके प्रकाशकत्वसे आती है। अब विचार कीजिये कि जो निश्चयनय अपने गुण-गुणीभेदको भी सहन नहीं करता वह परप्रकाशकत्वसे आनेवाली 'ज्ञान' इस संज्ञाको 'चैतन्य' में कैसे स्वीकार कर सकता है ? दूसरे शब्दोंमें वह 'ज्ञायक' को 'शद्ध ज्ञायक' मानना चाहता है । आत्मा जब तक विभावपरिणति करता है तब तक उसके अनेक योग, उपयोग और विकल्प होते रहते हैं । किन्तु जब वह विभावदशा से स्वभाव में पहुँचता है तब उसकी परिणति एक ही होती है और वह होती है शुद्ध ज्ञायक परिणति । सिद्ध होनेके प्रथम क्षणसे अनन्तकाल तक एक जैसी शद्ध परिणति उसकी होती है। तब यह प्रश्न उठता है कि यदि सिद्धकी अनन्तकाल तक एक जैसी शुद्ध पर्याय १. 'स्वाश्रितो निश्चयः पराश्रितो व्यवहारः ।' -नियमसार टीका २. गाथा ७॥
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