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४ / विशिष्ट निबन्ध : ३३५ गोसाल दैववादी, अजितकेश कम्बल जड़वादी, प्रक्रुध कात्यायन अकृततावादी और संजयवेलट्ठपुत्त अनिश्चयवादी थे ।
वेद और उपनिषद् के भी आत्मा परलोक आदिके सम्बन्धमें अपने विविध मतभेद थे। फिर श्रमणसंघ में दीक्षित होनेवाले अनेक भिक्षु उसी औपनिषद् तत्त्वज्ञान के प्रतिनिधि वैदिक वर्गसे भी आए थे । अतः जबतक उनकी जिज्ञासा तृप्त नहीं होगी तबतक वे कैसे अपने पुराने साथियोंके सन्मुख उन्नतशिर होकर अपने नये धर्म धारणकी उपयोगिता सिद्ध कर सकेंगे ? अतः व्यावहारिक दृष्टिसे भी इनके स्वरूपका निरूपण करना उचित ही था । तीरसे घायल व्यक्तिका तत्काल तीर निकालना इसलिये प्रथम कर्तव्य है कि उसका असर सीधा शरीर और मनपर हो रहा था । यदि वह विषैला तीर तत्काल नहीं निकाला जाता तो उसकी मृत्यु हो सकती है । पर दीक्षा लेनेके समय तो प्राणोंका अटकाव नहीं है । जब एक तरफ यह घोषणा की है" परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न त्वादरात्” अर्थात् भिक्षुओ, मेरे वचनोंको अच्छी तरह परीक्षा करके ही ग्रहण करना, मात्र मुझमें आदर होनेके कारण नहीं" तो दूसरी ओर मुद्देके प्रश्नोंको अव्याकृत रखकर और उन्हें मात्र श्रद्धासे अव्याकृत रूपमें ही ग्रहण करनेकी बात कहना सुसंगत तो नहीं मालूम होता । भगवान् महावीरकी मानस अहिंसा
भगवान् महावीरने यह अच्छी तरह समझा कि जब तक बुनियादी तत्त्वोंका वस्तु स्थिति के आधार यथार्थ निरूपण नहीं होगा तब तक संघके पंचमेल व्यक्तियोंका मानस रागद्वेष आदि पक्ष भूमिकासे उठकर तटस्थ अहिंसाकी भूमिपर आ ही नहीं सकता और मानस संतुलनके बिना वचनोंमें तटस्थता और निर्दोषता आना सम्भव ही नहीं । कायिक आचार भले ही हमारा संयत और अहिंसक बन जाय पर इससे आत्मशुद्धि तो हो नहीं सकती, उसके लिए तो मनके विचारोंको और वाणीकी वितण्डा प्रवृत्तिको रास्तेपर लाना ही होगा । इसी विचारसे अनेकान्तदर्शन तथा स्याद्वादका आविर्भाव हुआ । महावीर पूर्ण अहिंसक योगी थे । उनको परिपूर्ण तत्त्वज्ञान था । वे इस बातकी गंभीर आवश्यकता समझते थे कि तत्त्वज्ञानके पायेपर ही अहिसक आचारका भव्य प्रासाद खड़ा किया जा सकता है । दृष्टान्तके लिये हम यज्ञहिंसा सम्बन्धी विचारको ही लें । याज्ञिकका यह दर्शन था कि पशुओंकी सृष्टि स्वयम्भूने यज्ञके लिये ही की है, अतः यज्ञमें किया जानेवाल वध वध नहीं है, अवध है। इसमें दो बातें हैं - १ - ईश्वरने सृष्टि बनाई है और २ - पशु सृष्टियज्ञके लिये. ही है । अतः यज्ञमें किया जानेवाला पशुवध विहित है ।
इस विचारके सामने जबतक यह सिद्ध नहीं किया जायगा कि सृष्टिकी रचना ईश्वरने नहीं की है किन्तु यह अनादि है । जैसा हमारी आत्मा स्वयंसिद्ध है वैसी ही पशुकी आत्मा भी। जैसे हम जीना चाहते हैं, हमें अपने प्राणप्रिय हैं, वैसे ही पशुको भी। इस लोक में किये गये हिंसा कर्मसे परलोकमें आत्माको नरकादि गतियोंमें दुःख भोगने पड़ते हैं । हिंसासे आत्मा मलिन होती है । यह विश्व अनन्त जीवोंका आवास है । प्रत्येकका अपना स्वतः सिद्ध स्वातन्त्र्य है अतः मन, वचन, कायगत अहिंसक आचार हो विश्वमें शान्ति ला सकता है' तब तक किसी समझदारको यज्ञवधकी निस्सारता, अस्वाभाविकता और पापरूपता कैसे समझ में आ सकती है ।
जब शाश्वत-आत्मवादी अपनी सभा में वह उपदेश देता हो कि आत्मा कूटस्थ नित्य है, निर्लेप हैं, अवध्य है, कोई हिंसक नहीं हिंसा नहीं । और उच्छेदवादी यह कहता हो कि मरनेपर यह जीव पृथिवी आदि भूतोंसे मिल जाता है, उसका कोई अस्तित्व नहीं रहता । न परलोक है, न मुक्ति ही । तब आत्मा और परलोकके सम्बन्धमें मौन रखना तथा अहिंसा और दुःख निवृत्तिका उपदेश देना सचमुच बिना नींवके मकान
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