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३२२ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
कौआ काला है' यह नहीं हो सकता; क्योंकि कौआ कौआ है और काला काला । यदि काला कौआ हो; तो समस्त भौंरा आदि काले पदार्थ कौआ हो जाएँगे। यदि कौआ काला हो; तो सफेद कौआ नहीं हो सकेगा। फिर कौआके रक्त, मांस, पित्त, हड्डी, चमड़ी आदि मिलकर पंचरंगी वस्तु होते हैं, अतः उसे केवल काला ही कैसे कह सकते हैं ?
इस नयकी दृष्टिमें पलालका दाह नहीं हो सकता; क्योंकि आगीका सुलगाना, धौंकना और जलाना आदि असंख्य समयकी क्रियाएँ वर्तमान क्षण नहीं हो सकतीं । जिस समय दाह है उस समय पलाल नहीं और जिस समय पलाल है उस समय दाह नहीं, तब पलालदाह कैसा ? 'जो पलाल है वह जलता है' यह भी नहीं कह सकते; क्योंकि बहुत-सा पलाल बिना जला हुआ पड़ा है।
इस नयकी सूक्ष्म विश्लेषक दृष्टि में पान, भोजन आदि अनेक-समय-साध्य कोई भी क्रियाएँ नहीं बन सकती; क्योंकि एक क्षणमें तो क्रिया होती नहीं और वर्तमानका अतीत और अनागतसे कोई सम्बन्ध इसे स्वीकार नहीं है । जिस द्रव्यरूपी माध्यमसे पूर्व और उत्तर पर्यायोंमें सम्बन्ध जुटता है उस माध्यमका अस्तित्व ही इसे स्वीकार्य नहीं है।
इस नयको लोकव्यवहारके विरोधकी कोई चिन्ता नहीं है। लोक व्यवहार तो यथायोग्य व्यवहार, गम आदि अन्य नयोंसे चलेगा ही। इतना सब क्षणपर्यायको दष्टिसे विश्लेषण करनेपर भी यह नय द्रव्यका लोप नहीं करता। वह पर्यायकी मख्यता भले ही कर ले. पर द्रव्यकी परमार्थसत्ता उसे क्षणकी तरह ही स्वीकृत है । उसकी दृष्टिमें द्रव्यका अस्तित्व गौणरूपमें विद्यमान रहता ही है।
बौद्धका सर्वथा क्षणिकवाद ऋजुसूत्रनयाभास है, क्योंकि उसमें द्रव्यका विलोप हो जाता है और जब निर्वाण अवस्थामें चित्तसन्तति दीपककी तरह बुझ जाती है, यानी अस्तित्वशन्य हो जाती है, तब उनके मतमें द्रव्यका सर्वथा लोप स्पष्ट हो जाता है।
क्षणिक पक्षका समन्वय ऋजुसूत्रनय तभी कर सकता है, जब उसमें द्रव्यका पारमार्थिक अस्तित्व विद्यमान रहे, भले ही वह गौण हो। परन्तु व्यवहार और स्वरूपभूत अर्थक्रियाके लिये उसकी नितान्त आवश्यकता है। शब्दनय और तदाभास
काल, कारक, लिंग तथा संख्याके भेदसे शब्दभेद होनेपर उनके भिन्न-भिन्न अर्थोंको ग्रहण करनेवाला शब्दनय है। शब्दनयके अभिप्रायमें अतीत, अनागत और वर्तमानकालीन क्रियाओंके साथ प्रयुक्त होनेवाला एक ही देवदत्त भिन्न हो जाता है । 'करोति क्रियते' आदि भिन्न साधनोंके साथ प्रयुक्त देवदत्त भी भिन्न है । 'देवदत्तः देवदत्ता' इस लिंगभेदमें प्रयुक्त होनेवाला देवदत्त भो एक नहीं है। एकवचन, द्विवचन
और बहुवचनमें प्रयुक्त होनेवाला देवदत्त भी भिन्न-भिन्न है । इसको दृष्टिमें भिन्न कालीन, भिन्नकारकनिष्पन्न, भिन्नलिंगक और भिन्नसंख्याक शब्द एक अर्थ के वाचक नहीं हो सकते । शब्दभेदसे अर्थभेद होना ही चाहिये । शब्दनय उन वैयाकरणोंके तरीकेको अन्याय्य समझता है जो शब्दभेद मानकर भी अर्थभेद नहीं मानना चाहते, अर्थात् जो एकान्तनित्य आदि रूप पदार्थ मानते हैं, उसमें पर्यायभेद स्वीकार नहीं करते ।
१. "ननु संव्यवहारलोपप्रसङ्ग इति चेत्, न; अस्य नयस्य विषयमात्रप्रदर्शनं क्रियते । सर्वनयसमहसाध्यो हि
लोकसंव्यवहारः ।" -सर्वार्थसि० ११३३ । २, "कालकारकलिङ्गादिभेदाच्छब्दोऽर्थभेदकृत् ।"-लघी० श्लो० ४४ । अकलङ्कग्रन्थत्रयटि० पृ० १४६ ।
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