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२८८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
तक उस आत्माके साथ बना रहता है । इसीके परिपाकसे आत्मा कालान्तरमें अच्छे और बुरे अनुभव और प्रेरणाओंको पाता है । जो पुद्गल द्रव्य एक बार किन्हीं विचारोंसे प्रभावित होकर खिचा या बँधा है, उसमें भी कालान्तर में दूसरे दूसरे विचारोंसे बराबर हेरफेर होता रहता है । अन्तमें जिस-जिस प्रकारके जितने संस्कार बचे रहते हैं; उस उस प्रकारका वातावरण उस व्यक्तिको उपस्थित हो जाता है ।
वातावरण और आत्मा इतने सूक्ष्म प्रतिबिम्बग्राही होते हैं कि ज्ञात या अज्ञात भावसे होनेवाले प्रत्येक स्पन्दन के संस्कारोंको वे प्रतिक्षण ग्रहण करते रहते हैं । इस परस्पर प्रतिबिम्ब ग्रहण करनेकी क्रियाको हम 'प्रभाव' शब्दसे कहते हैं । हमें अपने समान स्वभाववाले व्यक्तिको देखते ही क्यों प्रसन्नता होती है ? और क्यों अचानक किसी व्यक्तिको देखकर जी घृणा और क्रोधके भावोंसे भर जाता है ? इसका कारण चित्तकी वह प्रतिबिम्बग्राहिणी सूक्ष्म शक्ति है, जो आँखोंकी दूरबीनसे शरीरको स्थूल दीवारको पार करके सामनेवाले मनोभावोंका बहुत कुछ आभास पा लेती है । इसीलिए तो एक प्रेमीने अपने मित्रके इस प्रश्नके उत्तर में कि "तुम मुझे कितना चाहते हो ?" कहा था कि "अपने हृदयमें देख लो ।" कविश्रेष्ठ कालिदास तथा विश्वकवि टैगोर ने प्रेमकी व्याख्या इन शब्दों में की है कि जिसको देखते ही हृदय किसी अनिर्वचनीय भावों में बहने लगे वही प्रेम है और सौंदर्य वह है जिसको देखते ही आँखें और हृदय कहने लगें कि 'न जाने तुम क्यों मुझे अच्छे लगते हो ?" इसीलिए प्रेम और सौंदर्य की भावनाओंके कम्पन एकाकार होकर भी उनके बाह्य आधार परस्पर इतने भिन्न होते हैं कि स्थूल विचारसे उनका विश्लेषण कठिन हो जाता है । तात्पर्य यह कि प्रभावका परस्पर आदान-प्रदान प्रतिक्षण चालू है । इसमें देश, काल और आकारका भेद भी व्यवधान नहीं दे सकता । परदेशमें गये पतिके ऊपर आपत्ति आनेपर पतिपरायणा नारीका सहसा अनमना हो जाना इसी प्रभावसूत्रके कारण होता है ।
इसीलिए जगत् के महापुरुषोंने प्रत्येक भव्यको एक ही बात कही है कि 'अच्छा वातावरण बनाओ; मंगलमय भावोंको चारों ओर बिखेरो ।' किसी प्रभावशाली योगी के अचिन्त्य प्रेम और अहिंसाको विश्वमंत्री रूप संजीवन धारासे आसपास की वनस्पतियोंका असमय में पुष्पित हो जाना और जातिविरोधी साँप नेवला आदि प्राणियोंका अपना साधारण वैर भूलकर उनके अमृतपूत वातावरण में परस्पर मैत्रीके क्षणोंका अनुभव करना कोई बहुत अनहोनी बात नहीं है, यह तो प्रभावकी अचिन्त्य शक्तिका साधारण स्फुरण है ।
जैसी करनी वैसी भरनी
निष्कर्ष यह है कि आत्मा अपनी मन, वचन और कायकी क्रियाओंके द्वारा वातावरणसे उम पुद्गल परमाणुओंको खींच लेता है, या प्रभावित करके कर्मरूप बना देता है, जिनके सम्पर्क में आते ही वह फिर उसी प्रकारके भावोंको प्राप्त होता है । कल्पना कीजिए कि एक निर्जन स्थानमें किसी हत्यारेने दुष्टबुद्धिसे किसी निर्दोष व्यक्तिको हत्या की । मरते समय उसने जो शब्द कहे और चेष्टाएँ कीं वे यद्यपि किसी दूसरेने नहीं देखीं, फिर भी हत्यारेके मन और उस स्थान के वातावरणमें उनके फोटो बराबर अंकित हुए हैं । जब कभी भी वह हत्यारा शान्तिके क्षणोंमें बैठता है, तो उसके चित्तपर पड़ा हुआ वह प्रतिविम्ब उसकी आँखोंके सामने झूलता है, और वे शब्द उसके कानोंसे टकराते हैं । वह उस स्थान में जानेसे घबड़ाता है और स्वयं अपने में परेशान होता है । इसीको कहते हैं कि 'पाप सिरपर चढ़कर बोलता है।' इससे यह बात स्पष्ट समझ में आ जाती है कि हर पदार्थ एक कैमरा है, जो दूसरे के प्रभावको स्थूल या सूक्ष्म रूपसे ग्रहण करता रहता है; और उन्हीं प्रभावों की औसतसे चित्र-विचित्र वातावरण और अनेक प्रकारके अच्छे-बुरे मनोभावों का सर्जन होता है । यह एक सामान्य सिद्धान्त है कि हर पदार्थ अपने सजातीयमें घुल-मिल जाता है, और विजातीयसे संघर्ष
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