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२८२ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
स्वरूपकी प्राप्तिमें है, न कि शुष्क बाह्य क्रियाकाण्ड में। इसलिये उसकी परिणति एक विलक्षण प्रकार की हो जाती है । आत्मकल्याण, समाजहित, देश निर्माण और मानवताके उद्धारका स्पष्ट मार्ग उसकी आँखोंमें झलता है और वह उसके लिये प्राणोंकी बाजी तक लगा देता है। स्वरूपज्ञान और स्वाधिकारकी मर्यादाका ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । और अपने अधिकार और स्वरूपकी सुरक्षाके अनुकर जीवनव्यवहार बनाना सम्यक्
। तात्पर्य यह कि आत्माकी वह परिणति सम्यकचारित्र है जिसमें केवल अपने गण और पर्यायों तक ही अपना अधिकार माना जाता है और जीवन-व्यवहारमें तदनुकुल ही प्रवृत्ति होती है, दूसरेके अधिकारोंको हड़पनेकी भावना भी नहीं होती। यह व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी स्वावलम्बी चर्या ही परम सम्यक्चारित्र है। अतः श्रमणसंस्कृतिने जीवनसाधना अहिंसाके मौलिक समत्वपर प्रतिष्ठित की है, और प्राणिमात्रके अभय और जीवित रहनेका सतत विचार किया है। निष्कर्ष यह है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे परिपुष्ट सम्यक्चारित्र ही मोक्षका साक्षात् साधन होता है ।
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