________________
२७८ : डॉ॰ महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यं स्मृति ग्रन्थ
अश्वघोषने सौन्दरनन्दमें ( १६ । २८, २९ ) निर्वाण प्राप्त आत्माके सम्बन्ध में जो यह लिखा है कि तेलके चुक जानेपर दीपक जिस तरह न किसी दिशाको, न किसी विदिशाको, न आकाशकों और न पृथ्वी को जाता है किन्तु केवल बुझ जाता है, उसी तरह कृती क्लेशोंका क्षय होनेपर किसी दिशा - विदिशा, आकाश या पातालको नहीं जाकर शान्त हो जाता है । यह वर्णन निर्वाणके स्थान विशेषकी तरफ ही लगता है न कि स्वरूपकी तरफ । जिस तरह संसारी आत्माका नाम, रूप और आकारादि बताया जा सकता है, उस तरह निर्वाण अवस्थाको प्राप्त व्यक्तिका स्वरूप नहीं समझाया जा सकता ।
वस्तुतः बुद्धने आत्माके स्वरूप के प्रश्नको ही जब अव्याकृत करार दिया, तब उसकी अवस्थाविशेषनिर्वाणके सम्बन्ध में विवाद होना स्वाभाविक ही था । भगवान् महावीरने मोक्षके स्वरूप और स्थान दोनों के सम्बन्धमें सयुक्तिक विवेचन किया है । समस्त कर्मोंके विनाशके बाद आत्माके निर्मल और निश्चल चैतन्यस्वरूपकी प्राप्ति ही मोक्ष है और मोक्ष अवस्थामें यह जीव समस्त स्थूल और सूक्ष्म शारीरिक बन्धनों से सर्वथा मुक्त होकर लोकके अग्रभागमें अन्तिम शरीरके आकार होकर ठहरता है । आगे गतिके सहायक धर्मद्रव्यके न होनेसे गति नहीं होती ।
मोक्ष न कि निर्वाण
जैन परम्परामें मोक्ष शब्द विशेष रूपसे व्यवहृत होता है उसका सीधा अर्थ है छूटना अर्थात् अनादिकालसे जिन कर्मबन्धनोंसे यह आत्मा जकड़ा हुआ था, उन बन्धनोंकी परतन्त्रताको काट देना । बन्धन कट जानेपर जो बँधा था, वह स्वतन्त्र हो जाता है । यही उसकी मुक्ति है किन्तु बौद्ध परम्परा में 'निर्वाण' अर्थात् दीपककी तरह बुझ जाना, इस शब्दका प्रयोग होनेसे उसके स्वरूप में ही घुटाला हो गया है । क्लेशोंके बुझने की जगह आत्माका बुझना ही निर्वाण समझ लिया गया है । कर्मोंके नाश करनेका अर्थ भी इतना ही है कि कर्मपुद्गल जीवसे भिन्न हो जाते हैं उनका अत्यन्त विनाश नहीं होता। किसी भी सत्का अत्यन्त विनाश न कभी हुआ है और न होगा। पर्यायान्तर होना ही 'नाश' कहा जाता है । जो कर्मपुद्गल अमुक आत्माके साथ संयुक्त होने के कारण उस आत्माके गुणोंका घात करनेकी वजहसे उसके लिए कर्मत्व पर्यायको धारण किये थे, मोक्षमें उसकी कर्मत्व पर्याय नष्ट हो जाती है। यानी जिस प्रकार आत्मा कर्मबन्धनसे छूटकर शुद्ध सिद्ध हो जाता है उसी तरह कर्मपुद्गल भी अपनी पर्यायसे उस समय मुक्त हो जाते हैं। यों तो सिद्ध स्थान पर रहनेवाली आत्माओंके साथ पुद्गलों या स्कन्धों का संयोग सम्बन्ध होता रहता है, पर उन पुद्गलों की उनके प्रति कर्मत्व पर्याय नहीं होती, अतः वह बन्ध नहीं कहा जा सकता । अतः जैन परम्परामें आत्मा और कर्मपुद्गलका सम्बन्ध छूट जाना ही मोक्ष । इस मोक्षमें दोनों द्रव्य अपने निज स्वरूपमें बने रहते हैं, न तो आत्मा दीपककी तरह बुझ जाता है और न कर्मपुद्गलका ही सर्वथा समूल नाश होता है । दोनोंकी पर्यायान्तर हो जाती है । जीवको शुद्ध दशा और पुद्गल की यथासंभव शुद्ध या अशुद्ध कोई भी अवस्था हो जाती है ।
५ संवर-तत्त्व
संवर रोकने को कहते हैं । सुरक्षाका नाम संदर है । जिन द्वारोंसे कर्मोंका आस्रव होता था, उन द्वारों का निरोध कर देना संवर कहलाता है । आसव योगसे होता है, अतः योगकी निवृत्ति ही मूलतः संवरके
१. श्लोक पृ० १३९ पर देखो ।
२. जोवाद् विश्लेषणं भेदः सतो नात्यस्तसंक्षयः " - आप्तप० श्लोक ११५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org