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________________ २५० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने भारतीय विद्याके सिधी स्मृति अंक में "उमास्वातिका तत्त्वार्थसूत्र और उनका सम्प्रदाय" शीर्षक लेखमें उमास्वातिको यापनोय संघका आचार्य सिद्ध किया है। इसके प्रमाण में उनने मैसूरके नगरतालुके ४६ नं ० के शिलालेखमें आया हुआ यह श्लोक उद्धृत किया है "तत्त्वार्थ सूत्रकर्त्तारम् उमास्वामिमुनीश्वरम् । श्रुतिकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम् ||" इस श्लोक में उमास्वामीको 'श्रुतकेवलिदेशीय' विशेषण दिया है और यही विशेषण यापनीयसंघाग्रणी शाकटायन आचार्यको भी लगाया जाता है। अतः उमास्वामी यापनीयसंघकी परम्परामें हुए हैं । इधर पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार उमास्वामीको दिगम्बर परम्पराका स्वीकार करते हैं तथा भाष्यको स्वोपज्ञ नहीं मानते । यद्यपि यह भाष्य अकलंकदेवसे पुराना है क्योंकि इनने राजवार्तिक में भाष्यगत कारिकाएँ उद्धृत की हैं और भाष्यमान्य सूत्रपाठकी आलोचना की है तथा भाष्यकी पंक्तियोंको वार्तिक भी बनाया है । इस तरह तत्त्वार्थ सूत्र, भाष्य और उमास्वामी के सम्बन्धके अनेक विवाद हैं जो गहरी छानबीन और स्थिर गवेषणाकी अपेक्षा रखते हैं । वृत्तिकर्ता श्रुतसागरसूरि वि० १६वीं शताब्दीके विद्वान् हैं । इनके समय आदिके सम्बन्धमें श्रीमान् प्रेमीजीने 'जैन साहित्य और इतिहास' में सांगोपांग विवेचन किया है। उनका वह लेख यहाँ साभार उद्धृत किया जाता है । श्रुतसागरसूरि ये मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण में हुए हैं और इनके गुरुका नाम विद्यानन्दि था । विद्यानन्दिदेवेन्द्रकीति और देवेन्द्रकीर्ति पद्मनन्दिके शिष्य और उत्तराधिकारी थे । विद्यानन्दिके बाद मल्लिभूषण और उनके बाद लक्ष्मीचन्द्र भट्टारक पदपर आसीन हुए थे । श्रुतसागर शायद गद्दीपर बैठे ही नहीं, फिर भी वे भारी विद्वान् थे । मल्लिभूषणको उन्होंने अपना गुरुभाई लिखा है । विधानन्दिका भट्टारक पट्ट गुजरातमें ही किसी स्थानपर था, परन्तु कहाँ पर था, इसका उल्लेख नहीं मिला | श्रुतसागरके भी अनेक शिष्य होंगे, जिनमें एक शिष्य श्रीचन्द्र थे जिनकी बनाई हुई वैराग्यमणिमाला उपलब्ध है । आराधनाकथाकोश, नेमिपुराण आदि ग्रन्थोंके कर्ता ब्रह्म नेमिदत्तने भी जो मल्लिभूषण के शिष्य थे - श्रुतसागरको गुरुभावसे स्मरण किया है और मल्लिभूषणकी वही गुरुपरम्परा दी है जो श्रुतसागरके ग्रन्थों में मिलती है । उन्होंने सिंहनन्दिका भी उल्लेख किया है जो मालवाकी गद्दीके भट्टारक थे और जिनकी प्रार्थनासे श्रुतसागरने यशस्तिलक की टीका लिखी थी । श्रुतसागरने अपनेको कलिकालसर्वज्ञ, कलिकालगौतम, उभयभाषाकविचक्रवर्ती, व्याकरणकमलमार्तण्ड, १. ये पद्मनन्दि वही मालूम होते हैं जिनके विषय में कहा जाता है कि गिरिनार पर सरस्वती देवीसे उन्होंने कहला दिया था कि दिगम्बर पन्थ ही सच्चा है । इन्हींकी एक शिष्य शाखामें सकलकीर्ति, विजयकीर्ति और शुभचन्द्र भट्टारक हुए हैं। २. इनकी गद्दी सूरत में थी । देखो 'दानवीर माणिकचन्द्र' पृ० ३७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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