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________________ २४८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ दिति ।" अर्थात् - ' हाथरहित अमूर्त आत्मा कैसे कर्म ग्रहण करता है' इस शंकाका उत्तर है 'जीव' पदका ग्रहण । प्राणधारण और आयुसंबंध के कारण जीव बना हुआ आत्मा कर्म ग्रहण करता है, आयुसम्बन्धसे रहित होकर सिद्ध अवस्था में नहीं । यहाँ श्रुतसागरसूरि 'नायुविरहात्' वाले अंशको इस रूपमें लिखते हैं- "आयुः सम्बन्धविरहे जीवस्यानाहारकत्वात् एकद्वित्रिसमयपर्यन्तं कर्म नादत्ते जीवः एकं द्वौ त्रीन् वाऽनाहारक इति वचनात् ।" अर्थात् आयुसम्बन्धके बिना जीव अनाहारक रहता है और वह एक दो तीन समय तक कर्मको ग्रहण नहीं करता क्योंकि एक दो तीन समय तक अनाहारक रहता है ऐसा कथन है। यहाँ कर्मग्रहणकी बात है, पर श्रुतसागरसूरि उसे नोकर्म ग्रहणरूप आहारमें लगा रहे हैं, जिसका कि आयुसम्बन्धविरहसे कोई मेल नहीं है । संसार अवस्थामें कभी भी जीव आयुसंबंधसे शून्य नहीं होता । विग्रहगतिमें उसके आयुसम्बन्ध होता ही है । ३- सर्वार्थसिद्धि ( ८२ ) में ही 'सः' शब्दकी सार्थकता इसलिए बताई गई है कि इससे गुणगुणिFast निवृत्त हो जाती है । नैयायिकादि शुभ-अशुभ क्रियाओंसे आत्मामें ही 'अदृष्ट' नामके गुणकी उत्पत्ति मानते हैं उसीसे आगे फल मिलता है । इसे ही बन्ध कहते हैं । दूसरे शब्दों में यही गुणगुणिबन्ध कहलाता है । आत्मा गुणी में अदृष्ट नामके उसोके गुणका सम्बन्ध हो गया । इसका व्याख्यान श्रुतसागरसूरि इस प्रकार करते हैं— "तेन गुणगुणिबन्धो न भवति । यस्मिन्नेव प्रदेशे जीवस्तिष्ठति तस्मिन्नेव प्रदेशे केवलज्ञानादिकं न भवति किंतु अपरत्रापि प्रसरति ।" अर्थात् इसलिए गुणगुणिबन्ध - गुणका गुणिके प्रदेशों तक सीमित रहना नहीं होता । जिस प्रदेशमें जीव है उसी प्रदेशमें ही केवलज्ञानादि नहीं रहते किन्तु वह अन्यत्र भी फैलता है । यहाँ, गुणगुणिबन्धका अनोखा ही अर्थ किया है, और यह दिखानेका प्रयत्न किया है कि गुणी चाहे अल्पदेशों में रहे पर गुण उसके साथ बद्ध नहीं है वह अन्यत्र भी जा सकता है । जो स्पष्टतः सिद्धांतसमर्थित नहीं है ४—पृ० २७० पृ० ११ में एकेन्द्रियके भी असंप्राप्तासृपाटिका संहननका विधान किया है । ५ - २७५ में सर्व मूलप्रकृतियोंके अनुभागको स्वमुखसे विपाक मानकर भी ' मतिज्ञानावरणका मति ज्ञानावरणरूपसे ही विपाक होता है' यह उत्तरप्रकृतिका दृष्टान्त उपस्थित किया गया है । ६ -- पृ० २८१ में गुणस्थानोंका वर्णन करते समय लिखा है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पहुँचनेवाला जीव प्रथम प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें ही दर्शनमोहनीयकी तीन, अनन्तानुबन्धी चार इन सात प्रकृतियों का उपशम करता है । जो सिद्धान्तविरुद्ध है क्योंकि प्रथमोशमसम्यक्त्वमें दर्शनमोहनीयकी केवल एक प्रकृति मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी चार इस तरह पाँच प्रकृतियोंके उपशमसे ही प्रथमोपशम सम्यक्त्व बताया गया है । सातका उपशम तो जिनके एकबार सम्यकूल हो चुकता है उन जीवोंके दुबारा प्रथमोशमके समय होता है । ७ - आदान निक्षेपसमितिमें— मयूरपिच्छके अभाव में वस्त्रादिके द्वारा प्रतिलेखनका विधान किया गया है, यह दिगम्बर परम्पराके अनुकूल नहीं है । ८- सूत्र ८०४७ में द्रव्यलिंगकी व्याख्या करते हुए श्रुतसागरसूरिने असमर्थ मुनियोंको अपवादरूपसे वस्त्रादिग्रहण इन शब्दोंमें स्वीकार किया है "केचिदसमर्था महर्षयः शीतकालादौ कम्बलशब्दवाच्यं कौशेयादिकं गृह्णन्ति न तत् प्रक्षालयन्ति, न तत् सीव्यन्ति न प्रयत्नादिकं कुर्वन्ति, अपरकाले परिहरन्ति । केचिच्छरीरे उत्पन्नदोषा लज्जितत्वात् तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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