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२३४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
( स्थिति ) कितने प्रकारकी है ? (विधान), उसकी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदिसे क्या स्थिति है । अस्तित्वका ज्ञान 'सत्' है। उसके भेदोंकी गिनती संख्या है। वर्तमान निवास क्षेत्र है। कालिक निवासपरिधि स्पर्शन है । ठहरनेकी मर्यादा काल है । अमुक अवस्थाको छोड़कर पुनः उस अवस्थामें प्राप्त होने तकके विरहकालको अन्तर कहते हैं । औपशमिक आदि भाव हैं । परस्पर संख्याकृत तारतम्यका विचार अल्पबहुत्व है । सारांश यह कि निक्षिप्त पदार्थका निर्देशादि और सदादि अनुयोगोंके द्वारा यथावत् सविवरण ज्ञान प्राप्त करना मुमुक्षुकी अहिंसा आदि साधनाओंके लिए आवश्यक है। जीवरक्षा करने के लिए जीवकी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदिकी दृष्टिसे परिपूर्ण स्थितिका ज्ञान अहिंसकको जरूरी ही है।
इस तरह प्रमाण नय निक्षेप और अनुयोगोंके द्वारा तत्त्वोंका यथार्थ अधिगम करके उनकी दृढ़ प्रतीति और अहिंसादि चारित्रको परिपूर्णता होनेपर यह आत्मा बन्धनमुक्त होकर स्वस्वरूपमें प्रतिष्ठित हो जाता है । यही मुक्ति है।
"श्रुतादर्थमनेकान्तमधिगम्याभिसन्धिभिः ।
परीक्ष्य ताँस्तान् तद्धर्माननेकान् व्यावहारिकान् ॥ ७३ ॥ नयानुगतनिक्षेपैरुपायैर्भेदवेदने विरचय्यार्थवाक्प्रत्ययात्मभेदान् श्रुतापितान् ।। ५४ ॥ अनुयुज्यानुयोगैश्च निर्देशादिभिदां गतैः। द्रव्याणि जीवादीन्यात्मा विवृद्धाभिनिवेशनः ।। ७५ ॥ जीवस्थानगुणस्थानमार्गणास्थानतत्त्ववित् ।
तपोनिर्जीणकर्मायं विमुक्तः सुखमृच्छति ।। ७६ ॥ अर्थात-अनेकान्तरूप जीवादि पदार्थोंको श्रुत-शास्त्रोंसे सुनकर प्रमाण और अनेक नयोंके द्वारा उनका यथार्थ परिज्ञान करना चाहिए। उन पदार्थों के अनेक व्यावहारिक और पारमार्थिक गण-धर्मोंकी परीक्षा नय दष्टियोंसे की जाती है । नयदृष्टियोंके विषयभूत निक्षेपोंके द्वारा वस्तुका अर्थ ज्ञान और शब्द आदि रूपसे विश्लेषण कर उसे फैलाकर उनमेंसे अप्रकृतको छोड़ प्रकृतको ग्रहण कर लेना चाहिए। उस छंटे हुए प्रकृत अंशका निर्देश आदि अनुयोगोंसे अच्छी तरह बारबार पूछकर सविवरण पूर्णज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए । इस तरह जीवादि पदार्थों का खासकर आत्मतत्त्वका जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणा स्थानोंमें दृढ़तर ज्ञान करके उनपर गाढ़ विश्वास रूप सम्यग्दर्शनकी वृद्धि करनी चाहिए। इस तत्त्वश्रद्धा और तत्त्वज्ञानके होनेपर परपदार्थोसे विरक्ति इच्छानिरोवरूप तप और चारित्र आदिसे समस्त कुसंस्कारों का विनाश कर पूर्व कर्मोको निर्जरा कर, यह आत्मा विमुक्त होकर अनन्त चैतन्यमय स्वस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। ग्रन्थका बाह्य स्वरूप
तत्वार्थाधिगमसूत्र जैनपरस्परा की गीता, बाइबिल, कुरान या जो कहिए एक पवित्र ग्रन्थ है। इसमें बन्धनमक्तिके कारणोंका सांगोपांग विवेचन है। जैनधर्म और जैनदर्शनके समस्त मूल आधारोंकी संक्षिप्त सचना इस सूत्र ग्रन्थसे मिल जाती है । भ० महावीरके उपदेश अर्धमागधी भाषामें होते थे जो उस समय मगध और बिहारकी जनबोली थी । शास्त्रोंमें बताया है कि यह अर्धमागधी भाषा अठारह महाभाषा और सातसौ लघभाषाओंके शब्दोंसे समृद्ध थी । एक कहावत है-"कोस-कोस पर पानी बदले चारकोस पर पर बानी।" सो यदि मगध देश काशीदेश और विहार देशमें चार-चार कोसपर बदलनेवाली बोलियोंकी वास्तविक गणना की जाय तो वे ७१८ से कहीं अधिक हो सकती होंगीं । अठारह महाभाषाएं मुख्य-मुख्य अठारह जन
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