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२१४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ
श्रद्धा नामपर बुद्धि और विवेककी ज्योतिको मत बुझावो । अपनी प्रतिष्ठा स्थिर रखने के लिए पीढ़ीके विकासको मत रोको । स्वयं समझो जिससे तुम्हारे संपर्क में आनेवाले लोगोंमें समझदारी आवे । रूढ़िचक्रका आम्नाय परम्परा आदिके नामपर आँख मूंदकर अनुसरण न करो। तुम्हारा यह पाप नई पीढ़ीको भोगना पड़ेगा । भारतकी परतन्त्रता हमारे पूर्वजोंकी ही गलती या संकुचित दृष्टिका परिणाम थी, और आज जो स्वतन्त्रता मिली वह गान्धीयुगके सम्यग्द्रष्टाओंके पुरुषार्थ का फल है । इस विचारधाराको प्राचीनता, हिन्दुत्व, धर्म और संस्कृतिके नामपर फिर तमः छन्न मत करो ।
सारांश यह कि आत्मस्वरूप और आत्माधिकारके पोषक उपबृंहक परिवर्धक और संशोधक कर्त्तव्योंका प्रचार करो जिससे सम्यग्दर्शनकी परम्परा चले । व्यक्तिका पाप व्यक्तिको भोगना ही साधनों की है।
अध्यात्म और नियतिवादका सम्यग्दर्शन
पदार्थस्थिति - " नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः " - जगतमें जो सत् है उसका सर्वथा विनाश नहीं हो सकता और सर्वथा नए किसी असत्का सद्रूपमें उत्पाद नहीं हो सकता । जितने मौलिक द्रव्य इस जगत में अनादिसे विद्यमान हैं अपनी अवस्थाओं में परिवर्तित होते रहते हैं । अनन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल अणु, एक धर्मद्रव्य, एक अधमंद्रव्य, एक आकाश और असंख्य कालाणु इनसे यह लोक व्याप्त है । ये छह जातिके द्रव्य मौलिक हैं, इनमेंसे न तो एक भी द्रव्य कम हो सकता है और न कोई नया उत्पन्न होकर इनकी संख्या में वृद्धि ही कर सकता है। कोई भी द्रव्य अन्यद्रव्यरूप में परिणमन नहीं कर सकता । जीव जीव ही रहेगा पुद्गल नहीं हो सकता । जिस तरह विजातीय द्रव्यरूपमें किसी भी द्रव्यका परिणमन नहीं होता उसी तरह एक जीव दूसरे सजातीय जीवद्रव्यरूप या एक पुद्गल दूसरे सजातीय पुद्गलद्रव्यरूपमें परिणमन भी नहीं कर सकता । प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायों अवस्थाओंकी धारामें प्रवाहित है । वह किसी भी विजातीय या सजातीय द्रव्यान्तरकी धारामें नहीं मिल सकता । यह सजातीय या विजातीय द्रव्यान्तरमें असंक्रान्ति ही प्रत्येक द्रव्यको मौलिकता है । इन द्रव्योंमें धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और कालद्रव्यों का परिणमन सदा शुद्ध ही रहता है, इनमें विकार नहीं होता, एक जैसा परिणमन प्रतिसमय होता रहता है । जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंमें शुद्धपरिणमन भी होता तथा अशुद्ध परिणमन भी । इन दो द्रव्योंमें क्रियाशक्ति भी है जिससे इनमें हलन चलन, आना-जाना आदि क्रियाएँ होती हैं। शेष द्रव्य निष्क्रिय हैं, वे जहाँ हैं वहीं रहते हैं । आकाश सर्वव्यापी है । धर्म और अधर्म लोका काशके बराबर हैं । पुद्गल और काल अणुरूप हैं । जीव असंख्यातप्रदेशी है और अपने शरीरप्रमाण विविध आकारों में मिलता है । एक पुद्गलद्रव्य ही ऐसा है जो सजातीय अन्य पुद्गलद्रव्योंसे मिलकर स्कन्ध बन जाता है और कभी-कभी इनमें इतना रासायनिक मिश्रण हो जाता है कि उसके अणुओंकी पृथक् सत्ताका भान करना भी कठिन होता है । तात्पर्य यह कि जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्यमें अशुद्ध परिणमन होता है और वह एक दूसरेके निमित्तसे । पुद्गलमें इतनी विशेषता है कि उसकी अन्य सजातीय पुद्गलोंसे मिलकर स्कन्ध-पर्याय भी होती है पर जीवकी दूसरे जीवसे मिलकर स्कन्ध पर्याय नहीं होती। दो विजातीय द्रव्य बँधकर एक पर्याय प्राप्त नहीं कर सकते । इन दो द्रव्योंके विविध परिणमनोंका स्थूलरूप यह दृश्य जगत् है ।
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द्रव्य - परिणमन - प्रत्येक द्रव्य परिणामी नित्य है । पूर्वपर्याय नष्ट होती है उत्तर उत्पन्न होती है पर मूलद्रव्यकी धारा अविच्छिन्न चलती है । यही उत्पाद व्यय - प्रौव्यात्मकता प्रत्येक द्रव्यका निजी स्वरूप है । धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्योंका सदा शुद्ध परिणमन ही होता है । जीवद्रव्यमें जो मुक्त जीव
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