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राष्ट्र के सारस्वत जगत् के अग्रणी
डॉ० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य प्रामाणिक विद्वान्, प्रभावी वक्ता एवं सफल लेखक तो थे ही; उनका व्यक्तित्व भी अत्यन्त सरल, निश्छल एवं सात्त्विक था। उनकी सादगी एवं विद्वत्ता का ही यह प्रकृष्ट प्रभाव था कि विरोधी विचारधारा वाले विद्वान् भी उनका प्रभूत आदर करते थे । पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य नाम के साथ स्वर्गीय शब्दकी संगति अनुचित लगती है । वे क्रान्तिकारी विचारों और उच्च रचनाओंसे आज भी जीवित हैं और सदा जीवित रहेंगे। हम सन् १९४८ में तीर्थराज श्री सम्मेदशिखरजी से लौटते हुए वाराणसी उतरे थे । हम उस समय क्षुल्लक थे । हमारे साथ कोल्हापुर के महास्वामी लक्ष्मीसेन भट्टारकजी थे। उस समय हमारा समयसार - कलशका स्वाध्याय चल रहा था । स्वाध्यायमें पं महेन्द्रकुमारजी भी सम्मिलित होते थे । लगभग पन्द्रह दिन तक हमें उनका सान्निध्य मिला था । इस कालमें हमें उनके विविध विषयक वैदुष्य और क्रान्तिदर्शी विचारोंका जो परिचय प्राप्त हुआ, उससे हमें यह विश्वास हो गया था कि ये राष्ट्र के सारस्वत् जगत में अपना उचित स्थान बनायेंगे और उन्होंने अपनी प्रज्ञासे हमारे इस विश्वासको सत्य सिद्ध कर दिया। यदि वे कुछ वर्ष और जीवित रहते, तो इसमें सन्देह नहीं है कि उनकी प्रज्ञाका सौरभ राष्ट्रकी सीमाओं का अतिक्रमण करके सुदूर विदेशों में पहुँचा होता । उनमें ऐसे गट्स थे, उनमें ऐसी प्रतिभा थी ।
ऐसे महामनीषीकी स्मृतियोंको संजोकर उनके गुणों, विद्वत्ता एवं गरिमापूर्ण कार्योंसे समाज एवं राष्ट्रको परिचित करानेका जो पावन संकल्प आप लोगों ने लिया है; तदर्थ हमारा बहुत-बहुत मंगल आशीर्वाद है ।
आचार्य विद्यानन्दजी महाराज
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