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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १९५ कर्मचक्र और भी तेजीसे चालू रहता है । जिस प्रकार हमारे भौतिक मस्तिष्कपर अनुभवकी असंख्य सीधी-टेढ़ी, गहरी - उथली रेखाएँ पड़ती रहती हैं, एक प्रबल रेखा आई तो उसने पहिलेकी निर्बल रेखाको साफ कर दिया और अपना गहरा प्रभाव कायम कर दिया, दूसरी रेखा पहिलेकी रेखाको या तो गहरा कर देती है या साफ कर देती है और इस तरह अन्तमें कुछ ही अनुभव रेखाएँ अपना अस्तित्व कायम रखती हैं, उसी तरह आज कुछ राग-द्वेषादि जन्य संस्कार उत्पन्न हुए कर्मबन्धन हुआ, पर दूसरे ही क्षण शील, व्रत, संयम और श्रुत आदिकी पूत भावनाओंका निमित्त मिला तो पुराने संस्कार धुल जायेंगे या क्षीण हो जायेंगे, यदि दुबारा और भी तीव्र रागादि भाव हुए तो प्रथमबद्ध कर्म पुद्गलमें और भी तीव्र फलदात्री अनुभागशक्ति पड़ जायगी। इस तरह जीवनके अन्तमें कर्मोंका बन्ध, निर्जरा, उत्कर्षण, अपकर्षण आदि होते-होते जो रोकड़ बाकी रहती है वही सूक्ष्म कर्मशरीरके रूपमें परलोक तक जाती है । जैसे तेज अग्निपर उबलती हुई बटलोईमें दाल, चावल, शाक जो भी डालिए उसका ऊपर-नीचे जाकर उफान लेकर नीचे बैठकर अन्तमें एक पाक बन जाता है, उसी तरह प्रतिक्षण बँधनेवाले अच्छे या बुरे कर्मों में शुभभावोंसे शुभकर्मो में रसप्रकर्ष और स्थितिवृद्धि होकर अशुभकर्मों में रसापकर्ष और स्थितिहानि होकर अनेक प्रकारके ऊँचनीच परिवर्तन होते-होते अन्तमें एक जातिका पाकयोग्य स्कन्ध बन जाता है, जिसके क्रमोदयसे रागादि सुखदुःखादि भाव उत्पन्न होते हैं । अथवा, जैसे उदरमें जाकर आहारका मल-मूत्र, स्वेद आदि रूपसे कुछ भाग बाहर निकल जाता है कुछ वहीं हजम होकर रक्तादि धातु रूपसे परिणत होता है और आगे जाकर वीर्यादिरूप बन जाता है, बीचमें चूरन चटनी आदिके योगसे लघुपाक दीर्घपाक आदि अवस्थाएँ भी होती हैं पर अन्तमें होनेवाले परिपाकके अनुसार ही भोजनमें सुपाकी दुष्पाको आदि व्यवहार होता है, उसी तरह कर्मका भी प्रतिसमय होनेवाले शुभ-अशुभ विचारोंके अनुसार तीव्र मन्द मध्यम मृदु मदुतर आदि रूपसे परिवर्तन बराबर होता रहता है । कुछ कर्म संस्कार ऐसे हैं जिनमें परिवर्तन नहीं होता और उनका फल भोगना ही पड़ता है, पर ऐसे कर्म बहुत कम हैं जिनमें किसी जातिका परिवर्तन न हो । अधिकांश कर्मों में अच्छे-बुरे विचारके अनुसार उत्कर्षण ( स्थिति और अनुभागकी वृद्धि ), अपकर्षण ( स्थिति और अनुभागकी हानि ), संक्रमण ( एकका दूसरे रूप में परिवर्तन ), उदीरणा ( नियत समय से पहिले उदयमें ले आना) आदि होते रहते हैं और अन्तमें शेष कर्मबन्धका एक नियत परिपाकक्रम बनता है । उसमें भी प्रतिसमय परिवर्तनादि होते हैं । तात्पर्य यह कि यह आत्मा अपने भले-बुरे विचारों और आचारोंसे स्वयं बन्धन में पड़ता है और ऐसे संस्कारोंको अपनेमें डाल लेता है जिनसे छुटकारा पाना सहज नहीं होता । जैन सिद्धान्तने उन विचारोंके प्रतिनिधिभूतकर्मद्रव्यका इस आत्मासे बंध माना है जिससे उस कर्मद्रव्यपर भार पड़ते ही या उसका उदय आते ह वे भाव आत्मामें उदित होते हैं । जगत् भौतिक है । वह पुद्गल और आत्मा दोनोंसे प्रभावित होता है । कर्मका एक भौतिक पिण्ड, जो विशिष्ट शक्तिका केन्द्र है, आत्मासे सम्बद्ध हो गया तब उसकी सूक्ष्म पर तीव्र शक्तिके अनुसार बाह्य पदार्थ भी प्रभावित होते हैं । बाह्य पदार्थों के समवधान के अनुसार कर्मोंका यथासम्भव प्रदेशोदय या फलोदय रूपसे परिपाक होता रहता है । उदयकालमें होनेवाले तीव्र मन्द मध्यम शुभ-अशुभ भावोंके अनुसार आगे उदय आनेवाले कर्मोंके रसदानमें अन्तर पड़ जाता है । तात्पर्य यह है कि बहुत कुछ कर्मोंका फल देना या अन्य रूपमें देना या न देना हमारे पुरुषार्थके ऊपर निर्भर है । इस तरह जैनदर्शनमें यह आत्मा अनादिसे अशुद्ध माना गया है और प्रयोगसे शुद्ध हो सकता है । शुद्ध होने के बाद फिर कोई कारण अशुद्ध होनेका नहीं रह जाता । आत्माके प्रदेशों में संकोच विस्तार भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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