________________
१६४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यं स्मृति ग्रन्थ
अचर्चित या अल्पचर्चित विषयोंके ज्ञानके लिए न्यायकुमुदचन्द्रको प्रमाणभूत आकरग्रन्थ मानते थे । न्यायकुमुदचन्द्र में विधिवादकी विस्तृत चरचा पृ० ५७३ से ५९८ तक है ।
गुणरत्न और प्रभाचन्द्र - विक्रमकी १५वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तपागच्छ में श्रीदेवसुन्दरसूरि एक प्रभावक आचार्य हुए थे । इनके पट्टशिष्य गुणरत्नसूरिने हरिभद्रकृत 'षड्दर्शनसमुच्चय' पर तर्क रहस्य - दीपिका नामकी बृहद्वृत्ति लिखी है । गुणरत्नसूरिने अपने क्रियारत्नसमुच्चय ग्रन्थको प्रतियोंका लेखनकाल विक्रम संवत् १४६८ दिया है। अतः इनका समय भी विक्रमकी १५वीं सदीका उत्तरार्ध सुनिश्चित है। गुणरत्नसूरिने षड्दर्शनसमुच्चय टीकाके जैनमत निरूपण में मोक्षतत्त्वका सविस्तर विशद विवेचन किया है । इस प्रकरण में इन्होंने स्वाभिमत मोक्षस्वरूपके समर्थन के साथही साथ वैशेषिक, साख्य, वेदान्ती तथा बौद्धों के द्वारा माने गए मोक्षस्वरूपका बड़े विस्गरसे निराकरण भी किया है। इस परखंडन के भागमे न्यायकुमुदचन्द्रका मात्र अर्थ और भावकी दृष्टिसे ही नहीं, किन्तु शब्दरचना तथा युक्तियोंके कोटिक्रमकी दृष्टिसे भी पर्याप्त अनुसरण किया गया है । इस प्रकरणमें न्यायकुमुदचन्द्रका इतना अधिक शब्दसादृश्य है चन्द्र पाठकी शब्दशुद्धि करने में भी पर्याप्त सहायता मिली है। इसके सिवाय इस खासकर परपक्ष खंडनके भागोंपर न्यायकुमुदचन्द्रकी शुभ्रज्योत्स्ना जहाँ-तहाँ छिटक रही है ।
यशोविजय और प्रभाचन्द्र -- उपाध्याय यशोविजयजी विक्रमको १८वीं सदी के युगप्रवर्तक विद्वान् थे । इन्होंने विक्रम संवत् १६८८ ( ईस्वी १६३१ ) में पं० नयविजयजीके पास दीक्षा ग्रहण की थी । इन्होंने काशी में नव्यन्यायका अध्ययनकर वादमें किसी विद्वान्पर विजय पानेसे न्यायविशारद' पद प्राप्त किया था । श्रीविजयप्रभसूरिने वि० सं० १७१८ में इन्हें 'वाचक - उपाध्याय' का सम्मानित पद दिया था। उपाध्याय यशोविजय वि० सं० १७४३ ( सन् १६८६ ) में अनशन पूर्वक स्वर्गस्थ हुए थे । दशवीं शताब्दीसे ही नव्यन्याय के विकासने भारतीय दर्शनशास्त्र में एक अपूर्व क्रान्ति उत्पन्न कर दो थी । यद्यपि दसवीं सदी के बाद अनेकों बुद्धिशाली जैनाचार्य हुए पर कोई भी उस नव्यन्यायके शब्दजालके जटिल अध्ययनमें नहीं पड़ा । उपाध्याय यशोविजय ही एकमात्र जैनाचार्य हैं जिन्होंने नव्यन्यायका समग्र अध्ययनकर उसी नव्यपद्धतिसे जैनपदार्थोंका निरूपण किया है। इन्होंने सैकड़ों ग्रन्थ बनाए है । इनका अध्ययन अत्यन्त तलस्पर्शी तथा बहुमुखी था। सभी पूर्ववर्ती जैनाचार्योंके ग्रन्थोंका इन्होंने विधिवत् पारायण किया। इनकी तोक्ष्ण दृष्टिसे धर्मभूषण तिकी छोटीसी पर सुविशद रचनावाली न्यायदीपिका भी नहीं छूटी। जैनतर्कभाषामें अनेक जगह न्याय दीपिका के शब्द आनुपूर्वीसे ले लिए गए है । इनके शास्त्रवार्तासमुच्चयटीका आदि बृहद्ग्रन्थोंके परपक्ष खंडनवाले अंशों में प्रभाचन्द्रके विविध विकल्पजाल स्पष्टरूपसे प्रतिविम्बित हैं । इन्होंने प्रभाचन्द्रका केवल अनुसरण ही नहीं किया है किन्तु साम्प्रदायिक स्त्रीमुक्ति और कवलाहार जैसे प्रकरणों में प्रभाचन्द्र के मन्तव्योंकी समालोचना भी की है ।
कि इससे न्यायकुमुदवृत्ति के अन्य स्थलोंपर
उपरिलिखित वैदिक-अवैदिकदर्शनों की तुलनासे प्रभाचन्द्र के अगाध, तलस्पर्शी, सूक्ष्म दार्शनिक अध्ययनका यत्किञ्चित् आभास हो जाता है। बिना इस प्रकारके बहुश्रुत अवलोकन के प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र जैसे जैनदर्शनके प्रतिनिधि ग्रन्थोंके प्रणयनका उल्लास ही नहीं हो सकता था । जैनदर्शन के मध्ययुगीन ग्रन्थोंमें प्रभाचन्द्र के ग्रन्थ अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं । ये पूर्वयुगीन ग्रन्थोंका प्रतिबिम्ब लेकर भी पारदर्शी दर्पणकी तरह उत्तरकालीन ग्रन्थोंके लिए आधारभूत हुए हैं, और यही इनकी अपनी विशेषता है। बिना इस आदान-प्रदानके दार्शनिक साहित्यका विकास इस रूपमें तो हो ही नहीं सकता ।
१. देखो –— न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ८१६ में ८४७ तकके टिप्पण ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org