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१६० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
छत सामान्यरीते मीमांसककुमारिलभट्टनु श्लोकवार्तिक, नालन्दाविश्वविद्यालयना आचार्य शान्तरक्षितकृत तत्त्वसंग्रह ऊपरनी कमलशीलकृत पंजिका अने दिगम्बराचार्य प्रभाचन्द्रना प्रमेयकमलमार्त्तण्ड अने न्यायकुमुदचन्द्रोदय विगेरे ग्रन्थोंनुं प्रतिबिम्ब मुख्यपणे आ टोकामाँ छे ।" अर्थात् सन्मतितर्कटीकापर मीमांसाइलोकवार्तिक, तत्त्वसंग्रहपंजिका, प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र आदि ग्रन्थोंका प्रतिबिम्ब पड़ा है । सन्मतितर्क के विद्वद्रूप सम्पादकोंकी उक्त बातसे सहमति रखते हुए भी मैं उसमें इतना परिवर्धन और कर देना चाहता हूँ कि - " प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका सन्मतितर्क से शब्दसादृश्य मात्र साक्षात् बिम्बप्रतिबिम्बभाव होने के कारण ही नहीं हैं, किन्तु तीनों ग्रन्थोंके बहुभागमें जो अकल्पित सादृश्य पाया जाता है। वह तृतीयराशिमूलक भी है। ये तृतीय राशिके ग्रन्थ हैं- भट्टजयसिंहराशिका तत्त्वोपप्लवसिंह, व्योमशिवको व्योमवती, जयन्तको न्यायमञ्जरी, शान्तरक्षित और कमलशोलकृत तत्त्वसंग्रह और उसकी पंजिका तथा विद्यानन्दके अष्टसहस्री, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, प्रमाणपरीक्षा, आप्तपरीक्षा आदि प्रकरण । इन्हीं तृतीयराशिके ग्रन्थोंका प्रतिबिम्ब सन्मतिटीका और प्रमेयकमलमार्त्तण्ड में आया है ।" सन्मतितर्कटीका, प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका तुलनात्मक अध्ययन करनेसे यह स्पष्ट मालूम होता है कि सन्मतितर्कका प्रमेयकमलमार्त्तण्डके साथ ही अधिक शब्दसादृश्य है । न्यायकुमुदचन्द्र में जहाँ भी यत्किञ्चित् सादृश्य देखा जाता है वह प्रमेयक मलमार्त्तण्डप्रयुक्त हो है साक्षात् नहीं । अर्थात् प्रमेयकमलमार्त्तण्डके जिन प्रकरणोंके जिस सन्दर्भसे सन्मतितर्कका सादृश्य है उन्हीं प्रकरणों में न्यायकुमुदचन्द्र से भी शब्दसादृश्य पाया जाता है । इससे यह तर्कणा की जा सकती है कि सन्मतितर्ककी रचना के समय न्यायकुमुदचन्द्रकी रचना नहीं हो सकी थी । न्यायकुमुदचन्द्र जयसिंहदेव के राज्यमें सन् १०५७ के आसपास रचा गया था जैसा कि उसकी अन्तिम प्रशस्तिसे विदित है | सन्मतितर्कटीका, प्रमेयकमलमार्त्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रकी तुलनाके लिए देखो प्रमेयकमलमार्त्तण्ड प्रथम अध्यायके टिप्पण तथा न्यायकुमुदचन्द्रके टिप्पणोंमें दिए गए सन्मतिटीका के अवतरण ।
वादि देवसूरि और प्रभाचन्द्र - 'देवसूरि श्रीमुनिचन्द्रसूरि के शिष्य थे । प्रभावकचरित्रके लेखानुसार मुनिचन्द्र शान्तिसूरिसे प्रमाणविधाका अध्ययन किया था । ये प्राग्वाटवंशके रत्न थे । इन्होंने वि० सं० ११४३में गुर्जर देशको अपने जन्मसे पूत किया था । ये भडोंच नगर में ९ वर्षकी अल्पवयमें वि० सं० ११५२में दीक्षित हुए थे तथा वि० सं० १९७४ में इन्होंने आचार्यपद पाया था । राजर्षि कुमारपालके राज्यकालमें वि० सं० १२२६में इनका स्वर्गवास हुआ । प्रसिद्ध है कि - वि० सं० १९८१ वैशाख शुद्ध पूर्णिमाके दिन सिद्धराजकी सभा में इनका दिगम्बरवादी कुमुदचन्द्रसे बाद हुआ था और इसी वादमें विजय पानेके कारण देवसूरि वादि देवसूरि कहे जाने लगे थे । इन्होंने प्रमाणनयत्तत्त्वालोकालंकार नामक सूत्र ग्रन्थ तथा इसी सूत्रकी स्याद्वादरत्नाकर नामक विस्तृत व्याख्या लिखी है । इनका प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार माणिक्यनन्दिकृत परीक्षामुखसूत्रका अपने ढंग से किया गया दूसरा संस्करण ही है । इन्होंने परीक्षामुखके ६ परिच्छेदों का विषय ठीक उसी क्रमसे अपने सूत्रके आद्य ६ परिच्छेदों में यत्किञ्चित् शब्दभेद तथा अर्थभेदके साथ ग्रथित किया है | परीक्षामुखके अतिरिक्त इसमें नयपरिच्छेद नामक दो परिच्छेद और जोड़े गए हैं । माणिक्यनन्दिके सूत्रोंके सिवाय अकलंकके स्वविवृतियुक्त लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय तथा विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकका भी पर्याप्त साहाय्य इस सूत्र ग्रन्थ में लिया गया है। इस तरह भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में विशकलित जैन-पदार्थों का शब्द एवं अर्थदृष्टिसे सुन्दर संकलन इस सूत्रग्रन्थ में हुआ 1
परीक्षामुखसूत्रपर प्रभाचन्द्रकृत प्रमेयकमलमार्तण्ड नामकी विस्तृत व्याख्या है तथा अकलंकदेव के लघीयस्त्रयपर इन्हीं प्रभाचन्द्रका न्यायकुमुदचन्द्र नामका बृहत्काय टीकाग्रन्थ हैं । प्रभाचन्द्रने इन मल ग्रंथोंकी १, देखो, जैन साहित्यनो इतिहास, पृ० २४८ |
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