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४ / विशिष्ट निबन्ध : १३३ व्योमवती ( पृ० ५९१,५९२ ) में कुमारिलके मीमांसा-श्लोकवातिककी अनेक कारिकाएं उद्धृत हैं। व्योमवती (पृ० १२९ ) में उद्योतकरका नाम लिया है, भर्तृहरिके शब्दाद्वैतदर्शनका ( पृ० २० च ) खण्डन किया है और प्रभाकरके स्मृतिप्रमोषवादका भो ( पृ० ५४० ) खंडन किया गया है ।
इनमें भर्तृहरि, धर्मकीति, कुमारिल तथा प्रभाकर ये सब प्रायः समसामयिक और ईसाकी सातवीं शताब्दीके विद्वान् है । उद्योतकर छठी शताब्दीके विद्वान् हैं। अतः व्योमशिवके द्वारा इन समसामयिक एवं किंचित्पूर्ववर्ती विद्वानोंका उल्लेख तथा समालोचनका होना संगत ही है। व्योमवती ( पृ० १५ ) में बाणकी कादम्बरीका उल्लेख है । बाण हर्षकी सभाके विद्वान् थे, अतः इसका उल्लेख भी होना ठीक ही है ।
व्योमवती टीकाका उल्लेख करनेवाले परवती ग्रन्थकारोंमें शान्तरक्षित, विद्यानन्द, जयन्त, वाचस्पति, सिद्धर्षि, श्रीधर, उदयन, प्रभाचन्द्र, वादिराज, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र तथा गुणरल, विशेषरूपसे उल्लेखनीय है।
शान्तरक्षितने वैशेषिक-सम्मत षट्पदार्थोंकी परीक्षा की है। उसमें वे प्रशस्तपादके साथ ही साथ शंकरस्वामी नामक नैयायिकका मत भी पूर्वपक्षरूपसे उपस्थित करते हैं। परन्तु जब हम ध्यानसे देखते हैं तो उनके पूर्वपक्ष में प्रशस्तपादव्योमवतीके शब्द स्पष्टतया अपनी छाप मारते हुए नजर आते हैं। ( तुलनातत्त्वसंग्रह, पृ० २०६ तथा व्योमवती, पृ० ३४३ । ) तत्त्वसंग्रहकी पंजिका ( पू० २०६) में व्योमवती (१० १२९ ) के स्वकारणसमवाय तथा सत्तासमवायरूप उत्पत्तिके लक्षणका उल्लेख है। शान्तरक्षित तथा उनके शिष्य कमलशीलका समय ई० की आठवीं शताब्दिका पूर्वार्द्ध है। (देखो, तत्त्वसंग्रहकी भूमिका, पृ० xcvi)
विद्यानन्द आचार्यने अपनी आप्तपरोक्षा ( पृ० २६ ) में व्योमवती टीका ( पृ० १०७ ) से समवायके लक्षणकी समस्त पदकृत्य उद्धृत की है। 'द्रव्यत्वोपलक्षित समवाय द्रव्यका लक्षण है व्योमवती (१० १४९ ) के इस मन्तव्यको समालोचना भी आप्तपरीक्षा (पृ० ६ ) में की गई है। विद्यानन्द ईसाकी नवमशताब्दीके पूर्वार्द्धवर्ती हैं।
__ जयन्तकी न्यायमंजरी ( पृ० २३ ) में व्योमवती (पृ० ६२१ ) के अनर्थजत्वात् स्मृतिको अप्रमाण माननेके सिद्धान्तका समर्थन किया है, साथ ही पृ० ६५ पर व्योमवती ( पृ० ५५६ ) के फलविशेषणपक्षको स्वीकार कर कारकसामग्रीको प्रमाणमाननेके सिद्धान्तका अनुसरण किया है । जयन्तका समय हम आगे ईसाकी ९वीं शताब्दीका पूर्वभाग सिद्ध करेंगे।
वाचस्पति मिश्र अपनी तात्पर्यटीकामें (पृ० १०८) प्रत्यक्षलक्षणसूत्रमें 'यतः' पदका अध्याहार करते हैं तथा (१० १०२) लिंगपरामर्श ज्ञानको उपादानबुद्धि कहते हैं । व्योमवतीटीकामें (पृ० ५५६) 'यर पदका प्रयोग प्रत्यक्षलक्षणमें किया है तथा ( पृ० ५६१ ) लिंगपरामर्शज्ञानको उपादानबुद्धि भी कहा है । वाचस्पति मिश्रका समय ८४१ A.D. है।
प्रभाचन्द्र आचार्यने मोक्ष निरूपण ( प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ३०७ ) आत्मस्वरूपनिरूपण ( न्यायकमदचन्द्र, पृ० ३४९, प्रमेयकमलमा०, पृ० ११०) समवायलक्षण (न्यायकुमु०, पृ० २९५, प्रमेयकमलमा०, प०६०४) आदिमें व्योमवती (५० २०, ३९३, १०७ ) का पर्याप्त सहारा लिया है। स्वसंवेदनसिद्धिमें व्योमवतीके ज्ञानान्तरवेद्य ज्ञानवादका खण्डन भी किया है।
श्रोधर तथा उदयनाचार्यने अपनी कन्दली (पृ० ४ ) तथा किरणावलीमें व्योमवती ( पृ० २० क )
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