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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ११५ चित्तवादी थे । क्षणिकचित्तको भी अविच्छिन्न सन्तति मानते थे न कि विच्छिन्नप्रवाह । आचार्य कमलशोलने तत्त्वसंग्रहपंजिका (पृ० १८२ ) में कर्तृकर्मसम्बन्धपरीक्षा करते हुए इस प्राचीन श्लोकके भावको उद्धृत किया है "यस्मिन्नेव तु सन्ताने आहिता कर्मवासना। फलं तत्रैव सन्धत्ते कासेि रक्तता यथा ॥" अर्थात्-जिस सन्तानमें कर्मवासना प्राप्त हुई है उसका फल भी उसी सन्तानमें होता है । जो लाखके रङ्ग से रँगा गया है उसी कपास-बीजसे उत्पन्न होनेवाली रूई लाल होती है, अन्य नहीं। राहलजी इस परम्पराका विचार करें और फिर बुद्धको विच्छिन्नप्रवाही बतानेका प्रयास करें! हाँ, यह अवश्य था किवे अनन्त क्षणोंमें शाश्वत सत्ता रखनेवाला कूटस्थ नित्य पदार्थ स्वीकार नहीं करते थे। पर वर्तमान क्षण अनन्त अतीतके संस्कारोंका परिवर्तित पुंज स्वगर्भ में लिए हैं और उपादेय भविष्यक्षण उससे प्रभावित होता है, इस प्रकारके कालिक सम्बन्धको वे मानते थे। यह बात बौद्ध दर्शनके कार्यकारणभावके अभ्यासीको सहज ही समझ में आ सकती है।। निर्वाणके सम्बन्ध में राहलजी सर राधाकृष्णन्की आलोचना करते समय (पृ० ५२९ ) बड़े आत्मविश्वासके साथ लिख जाते हैं कि-"किन्तु बौद्ध-निर्वाणको अभावात्मक छोड़ भावात्मक माना ही नहीं जा सकता।" कृपाकर वे आचार्य कमलशीलके द्वारा तत्त्वसंग्रहपंजिका (१० १०४) में उद्धृत इस प्राचीनश्लोकके अर्थका मनन करें "चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशवासितम् । तदेव तैविनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते ॥" अर्थात्-चित्त जब रागादिदोष और क्लेश संस्कार से संयुक्त रहता है तब संसार कहा जाता है और जब तदेव--वही चित्त रागादिवलेश वासनाओंसे रहित होकर निरास्रवचित्त बन जाता है तब उसे भवान्त अर्थात् निर्वाण कहते हैं । शान्तरक्षित तो (तत्त्वसं० पृ० १८४ ) बहुत स्पष्ट लिखते हैं कि "मुवितनिर्मलता धियः" अर्थात्-चित्तकी निर्मलताको मुक्ति कहते हैं। इस श्लोकमें किस निर्वाणकी सूचना है ? वही चित्त रागादिप्रवाहसे वासित रहकर संसार बना और वही रागादिसे शून्य होकर मोक्ष बन गया। राहुलजी माध्यमिकवृत्ति (पृ० ५१९ ) गत इस निर्वाणके पूर्वपक्षको भी ध्यानसे देखें "इह हि उषितब्रह्मचर्याणां तथागतशासनप्रतिपन्नानां धर्मानुधर्मप्रतिपत्तियुक्तानां पुद्गलानां द्विविधनिर्वाणमपणितम्-सोपधिशेषं निरुपधिशेषं च। तत्र निरवशेषस्य अविद्यारागादिकस्य क्लेशगणस्य प्रहाणात् सोपधिशेष निर्वाणमिप्यते । तत्र 'उपधीयते अस्मिन् आत्मस्नेह इत्युपधिः । उपधिशब्देन आत्मप्रज्ञप्तिनिमित्ताः पञ्चोपादानस्कन्धा उच्यन्ते । शिष्यते इति शेषः, उपधिरेव शेषः उपधिशेषः-सह उपधिशेषेण वर्तत इति सोपधिशेषम् । कि तत् ? निर्वाणम् । तच्च स्कन्धमात्रकमेव केवलं सत्कायदृष्ट्यादि-क्लेशतस्कररहितमवशिष्यते निहताशेषचौरगणग्राममात्रावस्थानसाधम्र्येण तत् सोपधिशेषं निर्वाणम् । यत्र तु निर्वाणे स्कन्धमात्रकमपि नास्ति तन्निरुपधिशेष निर्वाणम् । निर्गत उपधिशेषोऽस्मिन्निति कृत्वा । निहताशेषचौरगणस्यग्राममात्रस्यापि विनाशसाधर्येण ।" अर्थात् निर्वाण दो प्रकारका है-१-सोपधिशेष २-निरुपधिशेष । सोपधिशेषमें रागादिका नाश होकर जिन्हें आत्मा कहते हैं ऐसे पाँचस्कन्ध निरास्रव दशामें रहते हैं। दूसरे निरुपधिशेष निर्वाणमें स्कन्ध भी नष्ट हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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