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४/ विशिष्ट निबन्ध : ५३
लम्भनियम आदि हेतुओंसे अद्वयसिद्धि कैसे करोगे? सहोपलम्भनियम-अर्थ और ज्ञान दोनों एक साथ उपलब्ध होते हैं अतः अर्थ और ज्ञान अभिन्न हैं, जैसे द्विचन्द्रज्ञानमें प्रतिभासित होनेवाले दो चन्द्र वस्तुतः पृथक् सत्ता नहीं रखते, किन्तु एक ही हैं।' यह अनुमान भी संवेदनाद्वैतकी सिद्धि करने में असमर्थ है। यतः सहोपलम्भ हेतु विरुद्ध है-'शिष्यके साथ गुरु आया' इस प्रयोगमें सहोपलम्भनियम भेद होनेपर ही देखा गया है। ज्ञान अन्तरंगमें चेतनाकारतया तथा अर्थ बाह्य देशमें जडरूपसे देखा जाता है अतः उनका सहोपलम्भनियम असिद्ध है। बाह्यसत् एकचन्द्रके स्वीकार किए बिना द्विचन्द्र दृष्टान्त भी नहीं बन सकता । सहोपलम्भनियमका भेदके साथ कोई विरोध नहीं होनेके कारण वह अनैकान्तिक भी है।
ज्ञानाद्वैतवादी बाह्यपदार्थके अस्तित्वमें निम्न बाधक उपस्थित करते हैं कि-एक परमाणु अन्यपरमाणुओंसे एकदेशसे संयोग करेगा, या सर्वात्मना? एकदेशसे संयोग माननेपर छह परमाणुओंसे संयोग करनेवाले परमाणुके छह देश हो जायेंगे। सर्वात्मना संयोग माननेपर परमाणुओंका पिण्ड एकपरमाणुरूप हो जायगा । इसी तरह अवयवी अपने अवयवोंमें एकदेशसे रहेगा, या सर्वात्मना ? एकदेशसे रहनेपर अवयवीके उतने ही देश मानने होंगे जितने कि अवयव है। सर्वात्मना प्रत्येक अवयवमें रहनेपर जितने अवयव हैं उतने ही अवयवी हो जायँगे। अवयवी यदि निरंश है, तो रक्तारक्त, चलाचल आदि विरुद्धधर्मोका अध्यास होनेसे उसमें भेद हो जायगा । इत्यादि ।
अकलंकदेवने इनका समाधान संक्षेपमें यह किया है कि जिस तरह एक ज्ञान अपने ग्राह्य, ग्राहक और संविदाकारसे तादात्म्य रखकर भी एक रहता है, उसी तरह अवयवी अपने अवयवोंमें कथञ्चित्तादात्म्य सम्बन्धसे रहनेपर भी एक ही रहेगा। अवयवोंसे सर्वथा भिन्न अवयवी तो जैन भी नहीं मानते । परमाणुओंमें परस्पर स्निग्धता और रूक्षताके कारण एक ऐसा विलक्षण सम्बन्ध होता है जिससे स्कन्ध बनता है । अतः ज्ञानके अतिरिक्त बाह्यपदार्थकी सत्ता मानना ही चाहिए। क्योंकि संसारके समस्त व्यवहार बाह्यसत् पदार्थोंसे चलते हैं, केवल ज्ञानमात्रसे नहीं।
परमाणुसंचयवाद निरास-सौत्रान्तिक ज्ञानसे अतिरिक्त बाह्यार्थ मानते हैं, पर वे बाह्यार्थको स्थिर, स्थूलरूप नहीं मानकर क्षणिक परमाणुरूप मानते हैं। परमाणु ओंका पुंज ही अत्यन्त आसन्न होनेके कारण स्थूलरूपसे मालूम होता है । जैसे पृथक् स्थित अनेक वृक्ष दूरसे एक स्थूलरूपमें प्रतिभासित होते हैं । अकलंकदेव इसका खंडन करते हुए लिखते हैं कि जब प्रत्येक परमाणु अतीन्द्रिय है और वह अपने परमाणुत्वको छोड़कर स्कन्ध अवस्थामें नहीं आता तब उनका समुदाय प्रत्यक्षका विषय कैसे हो सकेगा? अतीन्द्रिय वस्तुओंका समुदाय भी अपनी अतीन्द्रियता-सूक्ष्मता छोड़कर स्थूलता धारण किए बिना इन्द्रियगम्य नहीं हो सकता।
भिन्नअवयवविवाद निरास-नैयायिक अवयवीको अवयवोंसे भिन्न मानकर भी उसकी अवयवोंमें समवायसम्बन्धसे वृत्ति मानते हैं। वे अवयवीको निरंश एवं नित्य स्वीकार करते है। अकलंकदेव कहते है कि-अवयवोंसे भिन्न कोई अवयवी प्रत्यक्षादि प्रमाणोंका विषय नहीं होता। 'वृक्षमें शाखाएँ हैं' यह प्रतिभास तो होता है पर 'शाखाओंमें वृक्ष है' यह एक निराली हो कल्पना है। यदि अवयवी अतिरिक्त हो; तो एक-एक छटाक वजनवाले चार अवयवोंसे बने हुए स्कन्धमें अवयवोंके चार छटाक वजनके अतिरिक्त कुछ अवयवीका भी वजन आना चाहिये । अवयव तथा अवयवीका रूप भी पृथक्-पृथक् दिखना चाहिए । निरंश अवयवीके एक देशको रंगनेपर पूरा अवयवी रँगा जाना चाहिए। उसके एक देशमें क्रिया होनेपर समस्त अवयवीमें क्रिया होना चाहिये। उसके एक देशका आवरण होनेपर पूरे अवयवीको आवृत हो जाना
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