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५० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ २. प्रमेयनिरूपण
प्रमाणका विषय-यद्यपि अकलंकदेवने प्रमाणके विषयका निरूपण करते समय लघीयस्त्रयमें द्रव्यपर्यायात्मक अर्थको ही प्रमेय बताया है, पर न्यायविनिश्चयमें उन्होंने द्रव्य-पर्यायके साथ ही साथ सामान्य और विशेष ये दो पद भी प्रयुक्त किए है। वस्तुमें दो प्रकारका अस्तित्व है-१. स्वरूपास्तित्व, २. सा स्तित्व । एक द्रव्यकी पर्यायोंको दूसरे सजातीय या विजातीय द्रव्यसे असङ्कीर्ण रखनेवाला स्वरूपास्तित्व है। जैसे एक शाबलेय गौ की हरएक अवस्थामें 'शाबलेय शाबलेय' व्यवहार करानेवाला तत्-शाबलेयत्व । इससे एक शाबलेय गौव्यक्तिकी पर्याएँ अन्य सजातीय शाबलेयादि गौव्यक्तियोंसे तथा विजातीय अश्वादिव्यक्तियोंसे अपनी पृथक् सत्ता रखती है। इसीको जैन द्रव्य, ध्रौव्य, अन्वय, ऊर्ध्वतासामान्य आदि शब्दोंसे व्यवहत करते है। मालम तो ऐसा होता है कि बौद्धोंने सन्तानशब्दका प्रयोग ठीक इसी अर्थ में किया है । इसी स्वरूपास्तित्वको विषय करनेवाला 'यह वही है' यह एकत्वप्रत्यभिज्ञान होता है। अपनी भिन्न-भिन्न सत्ता रखनेवाले पदार्थों में अनुगतव्यवहार करानेवाला सादृश्यास्तित्व है । जैसे भिन्न-भिन्न गौव्यक्तियोंमें 'गी गौं' इस अनुगतव्यवहारको करानेवाला साधारण गोत्व । इसे तिर्यक् सामान्य कहते हैं। गौत्वादि जातियाँ सदृशपरिणाम रूप ही है; नित्य एक तथा निरंश नहीं है। एक द्रव्यको पूर्वोत्तर पर्यायोंमें व्यावृत्तप्रत्यय पर्यायरूप विशेषके निमित्तसे होता है। भिन्न सत्ता रखनेवाले दो द्रव्योंमें विलक्षणप्रत्यय व्यतिरेकरूप विशेष (द्रव्यगतभेद) से होता है। इस तरह दो प्रकारके सामान्य तथा दो प्रकारके विशेषसे युक्त वस्तु प्रमाणका विषय होती है। ऐसी हो वस्तु सत् है । सत्का लक्षण है-उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्यसे युक्त होना । सत्को ही द्रव्य कहते हैं। उत्पाद और व्यय पर्यायकी दृष्टिसे हैं जब कि ध्रौव्य गुणकी दृष्टिसे । अतः द्रव्यका गुण-पर्यायवत्त्व लक्षण भी किया गया है । द्रव्य एक अखंड तत्त्व है। वह संयुक्त या रासायनिक मिश्रणसे तैयार न होकर मौलिक है । उसमें भेदव्यवहार करनेके लिए देश, देशांश तथा गुण, गुणांशकी कल्पना की जाती है। ज्ञान अखण्डद्रव्यको ग्रहण भले ही कर ले, पर उसका व्यवहार तो एक-एक धर्मके द्वारा ही होता है। इन व्यवहारार्थ कल्पित धर्मोको गुण शब्दसे कहते हैं । वैशेषिकोंकी तरह गुण कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है । द्रव्यके सहभावी अंश गुण कहलाते हैं, तथा क्रमसे होनेवाले परिणमन पर्याय कहलाते हैं। इस तरह अखण्ड मौलिक तत्त्वकी दृष्टिसे वस्तु नित्य होकर भी क्रमिक परिणमनकी अपेक्षासे अनित्य है। नित्यका तात्पर्य इतना ही है कि-वस्तु प्रतिक्षण परिणमन करते हुए भी अपने स्वरूपास्तित्वको नहीं छोड़ सकती। कितना भी विलक्षण क्यों न हो जीव कभी भी पुद्गलरूप नहीं हो सकता। इस असांकर्यका नियामक ही द्रव्यांश है। सांख्यके अपरिणामी कुटस्थ नित्य पुरुषकी तरह नित्यता यहाँ विवक्षित नहीं है और न बौद्धकी तरह सर्वथा अनित्यता ही; जिससे वस्तु सर्वथा अपरिणामी तथा पूर्वक्षण और उत्तरक्षण मर्वथा अनन्वित रह जाते हैं।
ध्रौव्य और सन्तान-यहाँ यह कह देना आवश्यक है कि जिस प्रकार जैन एक द्रव्यांश मानते हैं उसी तरह बौद्ध सन्तान मानते हैं। प्रत्येक परमाणु प्रतिक्षण अपनी अर्थपर्याय रूपसे परिणमन करता है, उसमें ऐसा कोई भी स्थायी अंश नहीं बचता जो द्वितीय क्षणमें पर्यायके रूपमें न बदलता हो । यदि यह माना जाय कि उसका कोई एक अंश बिलकुल अपरिवर्तनशील रहता है और कुछ अंश सर्वथा परिवर्तनशील; तब तो नित्य तथा क्षणिक दोनों पक्षोंमें दिए जानेवाले दोष ऐसी वस्तुमें आयेंगे। कथञ्चित्तादात्म्य सम्बन्ध माननेके कारण पर्यायोंके परिवर्तित होनेपर भी अपरिवर्तिष्णु कोई अंश हो ही नहीं सकता। अन्यथा उस अपरिवतिष्णु अंशसे तादात्म्य रखने के कारण शेष अंश भी अपरिवर्तनशील ही होंगे। इस तरह कोई एक ही मार्ग पकड़ना होगा-या तो वस्तु बिलकुल नित्य मानी जाय या बिलकुल परिवर्तनशील-चेतन भी अचेतनरूपसे परिणमन करनेवाली । इन दोनों अन्तिम सीमाओंके मध्यका ही वह मार्ग है जिसे हम द्रव्य कहते हैं ।
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