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३४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
धर्मकीर्तिके टीकाकार प्रज्ञाकरगुप्तने सुगतको धर्मज्ञके साथ ही साथ सर्वज्ञत्रिकालवर्ती यावत् पदार्थोंका ज्ञातो भी सिद्ध किया है। और लिखा है कि-सुगतकी तरह अन्य योगी भी सर्वज्ञ हो सकते हैं यदि वे अपनी साधक अवस्थामें रागादिविनिर्मुक्तिकी तरह सर्वज्ञताके लिए भी यत्न करें। जिनने वीतरागता प्राप्त कर ली है वे चाहें तो थोड़ेसे प्रयत्नसे तो सर्वज्ञ बन सकते हैं । शान्तरक्षित भी इसी तरह धर्मज्ञता साधनके साथ ही साथ सर्वज्ञता सिद्ध करते हैं और इस सर्वज्ञताको वे शक्तिरूपसे सभी वीतरागोंमें मानते हैं। प्रत्येक वीतराग जब चाहें तब जिस किसी भी वस्तुको अनायास ही जान सकते हैं।
योग तथा वैशेषिकके सिद्धान्तमें यह सर्वज्ञता अणिमा आदि ऋद्धियोंकी तरह एक विभूति है जो सभी रागोंके लिए अवश्य प्राप्तव्य नहीं है। हाँ, जो इसकी साधना करेगा उसे यह प्राप्त हो सकती है।
जैन ताकिकोंने प्रारम्भसे ही त्रिकाल-त्रिलोकवर्ती यावज्ज्ञेयों के प्रत्यक्षदर्शन रूप अर्थमें सर्वज्ञता मानी है और उसका समर्थन भी किया है। यद्यपि तर्कयुगके पहिले 'जे एगं जाणइ से मवं जाणइ'-जो एक आत्माको जानता है वह सर्व पदार्थों को जानता है इत्यादि वाक्य जो सर्वज्ञताके मुख्य माधक नहीं हैं, पाए जाते हैं; पर तर्कयुगमें इनका जैसा चाहिए वैसा उपयोग नहीं हुआ। समन्तभद्र आदि आचार्योंने सूक्ष्म, अन्तरित तथा दूरवर्ती पदार्थोंका प्रत्यक्षत्व अनुमेयत्व हेतुसे सिद्ध किया है। ज्ञान आत्माका स्वभाव है, जब दोष और आवरणका समूल क्षय हो जायगा तब ज्ञान अनायास ही अपने पूर्ण रूपमें प्रकट होकर सम्पूर्ण अर्थका साक्षात्कार करेगा। बौद्धोंकी तरह किसी भी जैनतर्कग्रन्थमें धर्मज्ञता और सर्वज्ञताका विभाजनकर उनमें गौण-मुख्यभाव नहीं बताया गया है । सभी जैनतार्किकोंने एकस्वरसे त्रिलोक त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों के पूर्णपरिज्ञान अर्थ में सर्वज्ञताका समर्थन किया है । धर्मज्ञता तो उक्त पूर्णसर्वज्ञताके गर्भ में ही निहित मान ली गई है।
अकलंकदेवने सर्वज्ञता तथा मुख्यप्रत्यक्ष के समर्थनके साथ ही साथ धर्मकीर्तिके उन विचारोंका खूब समालोचन किया है जिनमें बुद्ध को करुणावान्, शास्ता, तायि, तथा चातुरार्यसत्यका उपदेष्टा बताया है। साथ ही सर्वज्ञाभावके विशिष्ट समर्थक कुमारिलकी युक्तियोंका खण्डन किया है। वे लिखते हैं कि-आत्मामें सर्वपदार्थोके जाननेकी पूर्ण सामर्थ्य है। संसारो अवस्थामें मल-ज्ञानावरणसे आवत होने के कारण उसका पूर्ण प्रकाश नहीं हो पाता पर जब चैतन्यके प्रतिबन्धक कर्मका पूर्ण क्षय हो जाता है, तब उस अप्राप्यकारी ज्ञानको समस्त अर्थोको जानने में क्या बाधा है ? यदि अतीन्द्रियपदार्थोंका ज्ञान न हो सके तो ज्योतिग्रहोंकी ग्रहण आदि भविष्यदशाओंका जो अनागत होने से अतीन्द्रिय हैं, उपदेश कैसे होगा ? ज्योतिर्ज्ञानोपदेश यथार्थ देखा जाता है, अतः यह मानना ही चाहिए कि उसका यथार्थ उपदेश साक्षाद्रष्टा माने बिना नहीं हो सकता। जैसे सत्यस्वप्नदर्शन इन्द्रियादिकी सहायताके बिना ही भाविराज्यलाभादिका यथार्थ स्पष्ट ज्ञान कराता है तथा विशद है उसी तरह सर्वज्ञका ज्ञान भी भाविपदार्थों में संवादक तथा स्पष्ट है । जैसे प्रश्न या ईक्षणिकादिविद्या अतीन्द्रिय पदार्थोंका स्पष्ट पान करा देती है उसी तरह अतीन्द्रियज्ञान स्पष्ट भासक होता है। इस तरह साधक प्रमाणोंको बताकर उन्होंने जो एक खास हेतुका प्रयोग किया है, वह है-'सुनिशि बाधकप्रमाणत्व' अर्थात् किसी भी वस्तुकी सत्ता सिद्ध करनेके लिए सबसे बड़ा प्रमाण यही हो सकता है कि उसकी सत्तामें कोई साधक प्रमाण नहीं मिले। जैसे 'मैं सुखी हूँ' यहाँ सुखका साधक प्रमाण यही है किमेरे सखी होनेमें कोई बाधक प्रमाण नहीं है। चूंकि सर्वज्ञकी सत्तामें कोई भी बाधक प्रमाण नहीं है, अतः उसकी निर्बाध सत्ता होनी चाहिए। इस हेतुके समर्थनार्थ उन्होंने विरोधियों के द्वारा कल्पित बाधकोंका निराकरण इस प्रकार किया है
प्र०-'अर्हन्त सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि वह वक्ता है, पुरुष है, जैसे कोई भी गलीमें घूमनेवाला साधारण मनुष्य' यह अनुमान बाधक है ।
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