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३२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ
करते हुए लिखा है कि यदि शब्दके द्वारा कहे जाने लायक ज्ञानका नाम कल्पना है तथा बिना शब्दसंश्रयके कोई भी त्रिकल्पज्ञान उत्पन्न ही नहीं हो सकता; तब शब्द तथा शब्दांशोंके स्मरणात्मक विकल्पके लिए तद्वाचक अन्य शब्दों का प्रयोग मानना होगा, उन अन्य शब्दोंके स्मरणके लिए भी तद्वाचक अन्यशब्द स्वीकार करना होंगे, इस तरह दूसरे - दूसरे शब्दोंकी कल्पना करनेसे अनवस्था नामका दूषण होगा। अतः जब विकल्पज्ञान ही सिद्ध नहीं हो पाता; तब विकल्पज्ञानरूप साधकके अभाव में निर्विकल्पक भी असिद्ध ही रह जायगा और निर्विकल्पक तथा सविकल्पक रूप प्रमाणद्वयके अभाव में सकल प्रमेयका भी साधक प्रमाण न होनेसे अभाव ही प्राप्त होगा । यदि शब्द तथा शब्दांशोंका स्मरणात्मक विकल्प तद्वाचक शब्दप्रयोगके बिना ही हो जाय; तब तो विकल्पका अभिलापवत्त्व लक्षण अव्याप्त हो जायगा । और जिस तरह शब्द तथा शब्दांशोंका स्मरणात्मक विकल्प तद्वाचक अन्य शब्दके प्रयोगके बिना ही हो जाता । उसी तरह 'नीलमिदम्' इत्यादि विकल्प भी शब्दप्रयोग योग्यता के बिना ही हो जायेंगे, तथा चक्षुरादिबुद्धियाँ शब्दप्रयोगके बिना ही नीलपीतादि पदार्थों का निश्चय करनेके कारण स्वतः व्यवसायात्मक सिद्ध हो जायँगी । अतः विकल्पका अभिलापवत्त्व लक्षण दूषित है । विकल्पका निर्दोष लक्षण है - समारोपविरोधीग्रहण या निश्चयात्मकत्व |
सांख्य श्रोत्रादि इन्द्रियोंकी वृत्तियोंको प्रत्यक्षप्रमाण मानते हैं । अकलंकदेव कहते हैं कि श्रोत्रादि इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ तो तैमिरिक रोगीको होनेवाले द्विचन्द्रज्ञान तथा अन्य संशयादि ज्ञानों में भी प्रयोजक होती हैं, पर वे सभी ज्ञान प्रमाण तो नहीं है ।
नैयायिक – इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्षको प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं । इसे भी अकलंकदेवने सर्वज्ञके ज्ञानमें अव्याप्त बताते हुए लिखा है कि- त्रिकाल - त्रिलोकवर्ती यावत् पदार्थोंको विषय करनेवाला सर्वज्ञका ज्ञान प्रतिनियतशक्तिवाली इन्द्रियोंसे तो उत्पन्न नहीं हो सकता, पर प्रत्यक्ष तो अवश्य है । अतः सन्निकर्ष अव्याप्त है ।
सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष - चार प्रकारका है - १. अवग्रह, २. ईहा, ३. अवाय, ४. धारणा । प्रत्यक्षज्ञानकी उत्पत्तिका साधारण क्रम यह है कि सर्वप्रथम इन्द्रिय और पदार्थका योग्यदेशस्थितिरूप सम्बन्ध ( सन्निकर्ष ), ततः सामान्यावलोकन ( निर्विकल्पक ), ततः अवग्रह ( सविकल्पक ज्ञान ), ततः ईहा ( विशेष जिज्ञासा), ततः अवाय ( विशेष निश्चय ), अन्तमें धारणा ( संस्कार ) ।
सामान्यावलोकनसे धारणापर्यन्त ज्ञान चाहे एक ही मत्युपयोगरूप माने जायँ या पृथक्-पृथक् उपयोगरूप, दोनों अवस्थाओं में अनुस्यूत आत्माकी सत्ता तो मानना ही होगी, अन्यथा 'जो मैं देखनेवाला हूँ, वही मैं अवग्रह तथा ईहादि ज्ञानवाला हूँ, वही मैं धारण करता हूँ' यह अनुभवसिद्ध प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकेगा । इसी दृष्टिसे अकलंकदेवने दर्शन की अवग्रहरूप परिणति, अवग्रहकी ईहारूप, ईहाकी अवायरूप तथा अवायकी धारणारूप परिणति स्वीकार की है । अन्वित आत्मदृष्टिसे अभेद होनेपर भी इन ज्ञानोंमें पर्यायकी दृष्टि से तो भेद है ही ।
हा और धारणाकी ज्ञानात्मकता - वैशेषिक ईहाको प्रयत्न नामका पृथक् गुण तथा धारणाको भावनासंस्कार नामक पृथक् गुण मानते हैं । अकलंकदेवने इन्हें एक चैतन्यात्मक उपयोगकी अवस्था होने के कारण ज्ञानात्मक ही कहा है, ज्ञानसे पृथक् स्वतंत्र गुणरूप नहीं माना है ।
अवग्रहादिका परस्पर प्रमाण- फलभाव - ज्ञानके साधकतम अंशको प्रमाण तथा प्रमित्यंशको फल कहते हैं । प्रकृत ज्ञानोंमें अवग्रह, ईहाके प्रति साधकतम होनेसे प्रमाण है, ईहा प्रमाणरूप होनेसे उसका फल है ।
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