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१८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ
धर्मकीर्ति ६२० से ६९० तक
धर्मोत्तर ६५० से ७२० तक
तात्पर्य यह कि - भर्तृहरिकी अन्तिम कृति वाक्यपदीय सन् ६५० के आसपास बनी होगी । वाक्यपदीयके श्लोकों का खंडन करनेवाला कुमारिलका मीमांसाश्लोकवार्तिक और तन्त्रवार्तिक जैसा महान् ग्रन्थ सन् ६६० से पहिले नहीं रचा गया होगा । कुमारिल के मीमांसाश्लोकवार्तिककी समालोचना जिस धर्मकीर्तिकृत बहकाय प्रमाणवार्तिक में है, उसकी रचना सन् ६७० के आसपास हुई होगी । प्रमाणवार्तिकपर प्रज्ञाकर गुप्त अतिविस्तृत वार्तिकालंकार टीका सन् ६८५ के करीब रची गई होगी । वार्तिकालंकारका उल्लेख करनेवाली कर्ण गोमकी विशाल प्रमाणवार्तिकस्वोपज्ञवृत्तिटीकाकी रचना ७२० से पहिले कम संभव है । अतः इन सब ग्रन्थोंकी आलोचना करनेवाले अकलंकका समय किसी भी तरह सन् ७२० से पहिले नहीं जा सकता । अकलंकचरितके '७०० विक्रमार्कशकाब्द' वाले उल्लेखको हमें इन्हीं प्रमाणोंके प्रकाशमें देखना है । यदि १६वीं सदीके अकलंकचरितकी दी हुई शास्त्रार्थकी तिथि ठीक है तो वह विक्रमसंवत्की न होकर शक संवत्की होनी चाहिए । शकसंवत्का उल्लेख भी 'विक्रमार्कशकाब्द' शब्दसे पाया जाता है । अकलंकका यह समय माननेसे प्रभाचन्द्रके कथाकोशका उन्हें शुभतुंग ( कृष्णराज प्र० राज्य सन् ७५८ के बाद ) का मन्त्रिपुत्र बतलाना, मल्लिषेण प्रशस्तिका साहसतुंग ( दन्तिदुर्गं द्वि०, राज्य सन् ७४५ - ७५८ ) की सभा में उपस्थित होना आदि घटनाएँ युक्तिसंगत समयवाली सिद्ध हो जाती हैं । सोलहवीं सदी के अकलंकचरितकी अपेक्षा हमें १४वीं सदी के कथाकोश तथा १२वीं सदीकी मल्लिषेणप्रशस्तिको अग्रस्थान देना ही होगा; जब कि उसके साधक तथा पोषक अन्य आन्तरिक प्रमाण उपलब्ध हो रहे हैं । इति ।
अकलंकग्रन्थत्रय ग्रन्थ
शान्तरक्षित ७०५ से ७६२ तक अकलंक ७२० से ७८० तक
[ बाह्यस्वरूपपरिचय ]
१. ग्रन्थत्रय की अकलङ्ककर्तृ कता
प्रस्तुत ग्रन्थत्रयके कर्त्ता प्रखर तार्किक, वाग्मी श्रीमद्भट्टाकलङ्कदेव हैं । अकलङ्कदेवकी यह शैली है कि वे अपने ग्रन्थोंमें कहीं न कहीं 'अकलङ्क' नामका प्रयोग करते हैं । कहीं वह प्रयोग जिनेन्द्र के विशेषणरूपसे हुआ है तो कहीं ग्रन्थके विशेषणरूपसे और कहीं किसी लक्ष्यके लक्षणभूत शब्दों में विशेषणरूप से ।
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लघीयस्त्रय के प्रमाणनयप्रवेश के अन्त में आए हुए 'कृतिरियं सकलवादिचक्रचक्रवर्तिनो भगवतो भट्टाकलङ्कदेवस्य' इस पुष्पिकावाक्यसे, कारिका नं० ५० में प्रयुक्त 'प्रेक्षावानकलङ्कमेति' पदसे तथा कारिका नं० ७८ में कथित 'भगवदकलङ्कानाम्' पदसे ही लघीयस्त्रयकी अकलङ्ककर्तृकता स्पष्ट है और अनन्तवीर्याचार्य द्वारा सिद्धिविनिश्चयटीका ( पृ० ९९B ) में उद्धृत " तदुक्तम् लघीयस्त्रये - प्रमाणफलयो इस वाक्य से, आचार्य विद्यानन्द द्वारा प्रमाणपरीक्षा ( पृ० ६९ ) एवं अष्टसहस्री ( पृ० १३४ ) में ' तदुक्तमकल ङ्कदेवः ' कहकर उद्धृत लघीयस्त्रयकी तीसरी कारिकासे, तथा तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ( पृ० २३९ ) में 'अत्र अकलङ्कदेवाः प्राहुः' करके उद्धृत लघीयस्त्रयकी १०वीं कारिकासे लघीयस्त्रयकी अकलङ्ककर्तृकता समर्थित होती है । आचार्य मलयगिरि आवश्यक निर्युक्तिकी टीका ( पृ० ३७०B ) में तथा चाहाकलङ्कः' कहकर लघीयस्त्रयकी ३०वीं कारिका उद्धृत करके लघीयस्त्रयकी अकलङ्ककर्तृताका अनुमोदन करते हैं ।
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